Menu
blogid : 23256 postid : 1389255

अब चर्च तय करेंगे देश की सियासत!

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

देश में लोकसभा चुनाव रहे हां या किसी राज्य के विधानसभा चुनाव, दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम के हर एक चुनाव में किसी न किसी पार्टी को वोट देने के फतवों से सभी लोग वाकिफ होंगे। उन्हीं की तर्ज पर अब ऐसी दुकानें ईसाई मत को मानने वाले चर्चो के पादरियों ने भी खोल ली हैं। लोकसभा चुनाव 2019 से पहले सत्तारूढ़ दल के खिलाफ अभियान चलाने की तैयारी में ईसाई समुदाय मैदान में उतर आये हैं। इस बार दिल्ली के कैथोलिक चर्च के मुख्य पादरी अनिल कोटो ने दिल्ली के दूसरे पादरियों को चिट्ठी लिखी है इसमें कहा गया है कि देश का लोकतंत्र खतरे में है, जिसका बचना बेहद जरूरी है। ऐसे में 2019 में होनेवाले आम चुनावों के लिए भारत में रहने वाले कैथोलिकों को प्रार्थना करनी चाहिए।

 

 

कैथोलिक चर्च के मुख्य पादरी अनिल कोटो के इस बयान और कारनामे से साफ है कि 2019 में होने वाले आम चुनाव के लिए पादरी किसी एक पक्ष में लामबंद हो रहे हैं। जिसे देखकर लगता है कि ईसाई पादरी अब जीसस की प्रार्थना छोड़कर राजनितिक दलों की भक्ति में लीन हो रहे हैं। इससे पहले गुजरात चुनाव में भी चर्च ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सीधा प्रयास किया था। गांधीनगर के आर्च बिशप (प्रधान पादरी) थॉमस मैकवान ने चिट्ठी लिखकर ईसाई समुदाय के लोगों से अपील की थी कि वे गुजरात चुनाव में ‘राष्ट्रवादी ताकतों’ को हराने के लिए मतदान करें। यह स्पष्ट तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय एवं चुनाव आयोग की आचार संहिता का उल्लंघन किया गया था।

 

ये एक दो प्रयास नहीं है नागालैण्ड में सम्पन्न हुए चुनाव में भी बैपटिस्ट चर्च की तरफ से कहा गया था कि जीसस के अनुयायी पैसे और विकास की बात के नाम पर ईसाई सिद्दांतो और श्रद्धा को उन लोगों के हाथों में  न सौंपे जो यीशु मसीह के दिल को घायल करने की फिराक में रहते हैं। राज्य में बैपटिस्ट चर्चों की सर्वोच्च संस्था नागालैंड बैपटिस्ट चर्च परिषद् ने नगालैंड की सभी पार्टियों के अध्यक्षों के नाम यह एक खुला खत लिखा था। किन्तु इस बार तो राजधानी दिल्ली में बैठे प्रधान पादरी कोटो अपनी इस चिट्ठी लिख रहे कि सिर्फ पादरी ही नहीं बल्कि हर क्रिश्चियन संगठन और उसकी ओर झुकाव रखने वाले सगंठन और धार्मिक संस्थायें भी उनके इस अभियान में उनका साथ दें, कोटो लिख रहे है कि हमें अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए हर शुक्रवार को इस अभियान के तहत काम करना चाहिए।

 

एक तरफ तो इस चिठ्ठी में संवेधानिक संस्थाओ को बचाने की अपील की जा रही है। लेकिन दूसरी तरफ ही भारत के संविधान को धता बताया जा रहा है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशनुसार कोई भी धर्म, जाति, समुदाय या भाषा इत्यादि के आधार पर वोट नहीं माँग सकता। यहाँ तक कि धार्मिक नेता भी अपने समुदाय को किसी उम्मीदवार या पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए नहीं कह सकता। किन्तु, जिनकी आस्थाएं भारत के संविधान की जगह राजनितिक दलों में हों, उन्हें संविधान या संवैधानिक संस्थाओं के निर्देशों की चिंता नहीं होती बल्कि, उन्हें उनकी चिंता अधिक रहती है, जो उनके स्वार्थ एवं धार्मिक एजेंडे को पूरा करें।

 

 

बताया जाता है अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान देश में सभी जगह इसाई मिशनरियों को खूब प्रोत्साहन दिया गया इसका असर यह हुआ कि यहां चर्च ने बड़ी तेजी से अपने पांव पसारे परन्तु पूरी ताकत झोंकने के बाद भी पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को छोड़कर पूरी तरह देश को क्रॉस की छाया के नीचे नहीं ला पाई। ऐसे में जब इनके धार्मिक स्वार्थो की पूर्ति नहीं हो रही है तब ये अपने राजनितिक स्वार्थ लेकर मैदान में उतर रहे है। शायद इसी कारण सवाल खड़ें हो रहें कि जब हिन्दू धर्माचार्यों एवं संगठनों के सामान्य से बयान पर बखेड़ा खड़ा करने वाले मीडिया घराने, पत्रकार, सामाजिक संगठन एवं राजनीतिक विश्लेषक चर्च के सांप्रदायिक एजेंडे पर क्यों मौन है? क्या इन लोगों को कैथोलिक चर्च के मुख्य पादरी अनिल कोटो की इस चिट्ठी में कोई खोट नजर नहीं आ रहा है। जबकि यह सीधी तरह समाज को बाँटने का कार्य है?

 

आज वह लोग भी चुप्पी साधे बैठे हैं, जो धर्म को राजनीति से दूर रखने की वकालत करते हैं वह भी मुंह में गुड़ दबाकर बैठ गये जिन्हें भारत माता की जय और वन्देमातरम कहने मात्र से देश दो फाड़ होता दिखाई देता है। क्यों आज राष्ट्रगान तक पर शोर मचाने वाले राष्ट्रीय विचार को देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने को खतरा मानने वाले बुद्धिजीवी इस चिठ्ठी से किनारा करते नजर आ रहे है? शायद अंतर केवल इतना है कि अगर इस तरह काम मठ-मंदिर करें तो उसका हल्ला मच जाता है परन्तु चर्च की अलोकतांत्रिक राजनीति उसकी घंटियों के शोर में दब जाती है?

 

सब जानते है यह देश न वेटिकन से चलेगा न नागपुर से न ही किसी मठ से और न ही किसी मस्जिद से यह देश संविधान से चलेगा यदि कोई इसे अपनी मानसिकता से चलाना चाहता तो उसके लिए इस देश में कोई स्थान नहीं है। जिस तरह एक वर्ष पहले ही लोकतंत्र को खतरे में बताकर देश के क्रिश्चियनों से एकजुट होने और चुनावी प्रार्थना अभियान शुरू करने की अपील की जा रही है. इस सबसे शायद अब चर्च में प्रार्थना होती देख ईसा मसीह की मन की गहराई तक उतर जाने वाली शांति के बजाय लोगों के जेहन में यही बात आये कि यह कोई चुनावी प्रार्थना हो रही होगी, किसके पक्ष में मतदान करना और किसका बहिष्कार इसका फैसला हो रहा होगा या फिर चर्च में इक्कठा लोग सरकार के खिलाफ कोई अलोकतांत्रिक फतवा जारी कर रहे होंगे।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh