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अनपढ़,अंधविश्वासी और धर्मभीरू अधिकांश जनता को धर्म के भगवान के नाम पर नेता और पाखंडी तो लुटते देखे सुने थे| लेकिन अब दीवारों की रक्षा करते भगवान भी देख लिए ज्यों-ज्यों देश और समाज आगे बढ़ रहा है धर्म और संस्कृति लुटती पिटती नजर आ रही है| जहाँ लोग भगवान का अनुग्रह पाने के लिए भगवान की कृपा पाने के लिए आधुनिक अमीर मंदिरों में चढ़ावा चढ़ा रहे है वहीं कुछ लोग अपने मकान दुकान की दीवारों पर गणेश, शिव, हुनमान आदि के चित्र चिपका कर उन लोगों को डरा रहे है जो राह चलते दीवारों सड़कों के किनारे मल मूत्र त्याग कर देते है| आखिर यह कैसा भय है या ये कहो जिन्हें आप अपना भगवान कहते हो उनके साथ कैसा व्यवहार कर रहे हो? मर्यादा के सारे मंजर खंडित कर दिए! इसमें हम दो बाते कहना चाहते है एक तो वो लोग ही गलत है जो इस तरह के कृत्य कर देश में गंदगी फैलाते है दूसरा उनसे भी प्रश्न है आप लोग अपने महापुरुषों का इस तरह अपमान क्यों कर रहे है?
इसी कड़ी में कुछ आगे बढे तो धर्म और आस्था के नाम पे बड़े बड़े पढ़े लिखों को इसका शिकार होते देखा है, चमत्कारी बाबाओं और और तथाकथित भगवानो द्वारा महिलाओं के शोषण कीबातें हमेशा से प्रकाश में आती रही हैं, लेकिन अब इस प्रकार भगवान का उपयोग करना उन लोगों की आस्था पर प्रश्न चिन्ह जरूर खड़ा करता है हमारा यह भटका हुआसमाज है जो किरदार की जगहचमत्कारों से भगवान् को पहचानने की गलती किया करता है| कुछ लोग सोच रहे होंगे आर्य समाज से जुड़े होकर महर्षि देव दयानन्द के अनुयायी होकर ये क्या विषय लेकर बैठ गये पर हम बता दे आर्य समाज कोई धर्म या जाति नहीं वो सामाजिक चेतना की क्रांति का नाम हैं एक आन्दोलन है जिसका उदेश्य लोगों में जाग्रति पैदा करना हैं| जो सुबह उठकर मर्यादा पुरषोतम राम और योगिराज श्रीकृष्ण जी महाराज की आराधना करते है वो ही लोग फिर इनके चित्रों को दीवारों पर चिपका नीचे लिख देते है कि कृपया यहाँ पेशाब न करें भगवान देख रहे है मुझे ये शब्द लिखने में शर्म आ रही है आपको पढने में शर्म आएगी किन्तु हमारा देश कितना भी अपने आप को सामाजिक रूप से स्वस्थ समझता हो पर यह बीमारी बहुत अन्दर तक फ़ैल चुकी है, इस वजह से आर्य समाज धार्मिक शिक्षा के साथ सामाजिक शिक्षा का पक्षधर रहा है कि पहले इस समाज को समझो इसके अन्दर रहना सीखो फिर इसके बाद ही धार्मिक शिक्षा सफल होगी|
लेकिन आज चारों तरफ सफल लोगों की जिंदगियां तो देखो,इनसेज्यादा असफल जीवन और कहां मिलेंगे! धन तो इकट्ठा हो जाता है, किन्तु भीतर अज्ञानता की निर्धनता है। बाहर तो अच्छा पद हैं और भीतर भिखमंगा बैठा है। हाथ तो हीरों से भरेहैं,आत्मा अन्धविश्वास के कूड़े -कर्कट से भरी होती है । यदि आज समाज अच्छी चीजें ग्रहण करने के पक्ष में खड़ा हो जाये तो हमे दीवारों पर इन महापुरुषों की तस्वीर चिपका कर ये भद्दे स्लोगन ना लिखने पड़ेंगे किन्तु आज समाज ऐसे ही अभ्यस्त हो गया है असत के लिये,अशुभ के लिये तब चाहकर भी शुभ और सुंदर का जन्ममुश्किल हो जाता है..अपने ही हाथों से हम स्वयं कोअपने समाज को
रोज अधार्मिकता में जकड़ते जाते हैं।औरजितनी हमारी जकड़न होती है उतना ही सत्य दूर हो जाता है। हमारे प्रत्येक भावविचार और कर्म हमें निर्मित करते हैं।उन सबका समग्र जोड़ हीहमारा होना है।इसलिएजिसे सत्य साफ स्वच्छ के शिखर को छूना हैउसे ध्यान देना होगाकि जिस तरह एक रुमाल से एक विवाहित नारी सिर और चेहरा नहीं ढक सकती उसी तरह क्या एक चित्र आपके मंदिर और दिवार दोनों जगह शोभा नहीं दे सकता कोई भी महापुरुष पूजा के लिए या रक्षा के लिए पैदा नहीं होता उनके विचार होते है जिनपर चलकर समाज उन्नति करता है यदि आप उनसे अपनी दीवारों की सीलन हटवाना चाहते हो तो कहीं न कहीं उनके विचारों की हत्या करना हैं या ये कहो कि भगवान को याद करने के यह तरीके गलत है
राजीव चौधरी
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