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फिर देश में संविधान का काम ही क्या रह जायेगा?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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एक बार फिर से ये बहस जोर पकड़ रही है कि देश संविधान से चलेगा या इस्लामिक शरिया कानून से? क्योंकि हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दारुल कजा कमेटी के आयोजक काजी तबरेज आलम ने कहा है कि मुसलमान कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने के बजाय अपने मुकदमे दारुल कजा (शरई अदालत) के जरिये निपटाएं। इनके इस बयान के बाद इस बहस ने जोर पकड़ लिया है कि जब स्वतंत्रता के बाद नागरिकों के व्यकितत्त्व के पूर्ण विकास के लिए भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों का प्रावधान किया गया है संविधान की प्रस्तावना में न्याय, समानता, धर्मनिरपेक्षता एवं सांस्कृतिक बहुलता के महत्त्व का स्पष्ट उल्लेख है और प्रत्येक नागरिक को विधि के द्वारा समान संरक्षण और न्याय का अधिकार देता है तो फिर देश में धार्मिक अदालतों की जरूरत मुस्लिम समुदाय को क्यों आन पड़ी?

कहीं ऐसा तो नहीं कि संपूर्ण विश्व में मुसलमान आगे बढ़कर नित नई मांगें सामने रख रहे हैं और कुछ मामलों में तो अन्य मतो या उसी देश के नागरिकों के सामाजिक जीवन शैली को ही चुनौती देते दिख रहे हैं। जिनमें मध्यकाल की शरई अदालत भी एक है। मेरे ख्याल से आज के सार्वजनिक आधुनिक जीवन में शरीयत जैसे मध्ययुगीन कानून के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए इसका एक सामान्य नियम यह है कि देश में किसी भी वर्ग, सम्प्रदाय, जाति, धर्म और मजहब को बराबर  अधिकार दो परन्तु विशेषाधिकार की माँग अस्वीकार कर दी जाये।

आखिर जिस शरई अदालत की मांग काजी तबरेज आलम कर रहे हैं उसमें यह कौन सुनश्चित करेगा कि इसकी आड़ में महिलाओं और कमजोर मुस्लिमों का शोषण नहीं होगा? क्योंकि निकटवर्ती फैसलों में इसके अच्छे परिणाम दिखाई नहीं दिए है। मुजफ्फरनगर में साल 2005 में क्या हुआ था इमराना घर की चारदीवारी के भीतर ही अपने ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी जिसे बाद में इसी शरिया अदालत ने इमराना को उसके पिता तुल्य ससुर की पत्नी घोषित किया था, अंत में इसी भारतीय संविधान ने इमराना को न्याय दिया और उसके बलात्कारी ससुर को न्यायालय ने दस साल की सजा सुनाई थी।

 

प्रतीकात्मक चित्र
प्रतीकात्मक चित्र

 

जिसे ये उदहारण पुराना लगा हो अभी ताजा उदहारण बरेली का है जहाँ निदा खान नाम की एक मुस्लिम महिला को शौहर द्वारा तलाक मिला और दोबारा निकाह के लिए मजबूरी में ससुर से हलाला करना पड़ा था, मगर पिछले साल शौहर ने फिर तलाक देकर घर से निकाल दिया। फरियादों और गुहार के एक लम्बे दौर के बाद शौहर फिर दोबारा निकाह के लिए तैयार हुआ लेकिन इस बार उसने अपने छोटे भाई के साथ हलाला करने की शर्त रखी। ये सब शर्मनाक कांड इसी (शरई अदालत) की छाँव में हुआ है जिसके अनुसार आज मुस्लिम समुदाय को हांकने की कोशिश की जा रही है। क्या कोई सोच भी सकता है कि भारतीय संविधान की न्याय व्यवस्था ऐसे कृत्य की इजाजत देती?

इन घिनौने अमानवीय कृकृत्यों के बाद भी वहाबी लौबी भारत से संविधान को नष्ट कर शरिया अदालत से चला देना चाह रही है जबकि ;शरई अदालतद्ध के पैरोकारों को अपनी मांगों का मूल्यांकन करना चाहिए (शरई अदालत) की आड़ में पूर्ववर्ती कृत्यों और सामयिक आचरण को ध्यान को रखना चाहिए?  इन प्रत्येक उदाहरण से यह बात समझ में नहीं आती कि भारतीय मुसलमानां के कथित रहनुमा बने ये लोग सामाजिक दायरे में समायोजित होना चाहते हैं या फिर इसे नए सिरे से बनाना चाहते हैं। आखिर वह तरीका इस्लामिक कानून के अलावा कोई दूसरा क्यों नहीं हो सकता? किसी भी नागरिक का समान व्यवस्था के अंतर्गत रहना तो ठीक है परन्तु इसे अपने अनुसार चलाना सर्वथा अनुचित है। भारत के संदर्भ में जहाँ गंगा जमुनी तहजीब के गीत गाये जाते हैं वहां मुसलमानों को संविधान के ढांचे को स्वीकार करना चाहिए न कि इसकी अवहेलना करनी चाहिए। जो लोग शरियत के पक्ष में तर्क देते हैं उनसे सिर्फ एक प्रश्न है कि आखिर लोकतान्त्रिक और आधुनिक संवैधानिक विधि को लेकर उन्हें समस्या क्यों है? जबकि शेष दुनिया ने अपनी प्राचीन न्यायिक विधियों को नकार दिया और आधुनिक संविधान को आत्मसात किया है।

इस संदर्भ में देखें तो एक ओर आधुनिकता के इस दौर में कुछ कट्टरपंथी संगठन अनेकों स्थानों पर शरिया अदालत का पुरजोर समर्थन करते हुए हिंसा भी कर रहे है। शायद यह इस्लामवाद का एक प्रयोग हो? यदि यह प्रयोग असफल होता दिखता है तो दूसरा प्रयोग शुरू हो जाता है मज़हब के नाम पर नरम आवाज में अपनी मांग पुरजोर करते हैं कि उनकी आस्था को ध्यान में रखकर मज़हब के आधार पर अलग अदालते होनी चाहिए। यदि अदालत न मिले तो अपने लिए अलग मुल्क की मांग रख दी जाये। जैसाकि देश 1947 में मजहब के आधार पर भुक्तभोगी है इसमें कानून और विधि के जानकर इस्लामवादी नरम तरीकों से अपनी बात रखतें और उसके बाद हिंसक तत्त्व सत्ता प्राप्त करते हैं या शरिया अदालतों का संचालन करते हैं। जिस प्रकार हमास ने गाजा पर नियंत्रण करने के बाद किया था।

एक तरफ मुस्लिम समुदाय अपने अधिकारों की मांग संविधान के अनुसार करता दिखता है जिसमें कि आरक्षण आदि चीजें मांगता है दूसरा अपने फैसले मध्यकाल के शरई कानून में चाहता है क्या यह निष्कर्ष  इस बात पर पहुँचने को प्रेरित करता है कि इस्लाम और उसके सामान्य तत्त्व अपने आप में आधुनिक संविधान और लोकतंत्र से असंगत हैं। जिस कारण आज भी मुस्लिम समाज इस्लाम के सातवीं सदी के स्वभाव को प्रकट करने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है। जबकि मुसलमानों द्वारा अधिक अधिकार की माँग के मामलों में प्रमुख अंतर यह करना चाहिए कि क्या मुस्लिम अपेक्षायें समाज के दायरे में उपयुक्त बैठती हैं या नहीं! उन्हें साफ करना चाहिए कि हमें समाज में समायोजित होना या समाज को स्वयं में समायोजित करना है? यदि आज दारुल कजा (शरई अदालत) को सरकार या संविधान में स्वीकार किया गया तो कल खाप के फैसले, परसों गिरजाघर के फैसले इसके बाद हर एक पंथ, हर मजहब, समुदाय या जाति अपने-अपने तरीकों से फैसलों की मांग करेगा। फिर देश के अन्दर संविधान का काम ही क्या रह जाएगा?…राजीव चौधरी

 

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