Menu
blogid : 23256 postid : 1389242

बंगाल हिंसा: न पहली बार न आखिरी

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

लगता है बंगाल के भाग्य में अब आगे सिसकना ही लिखा है। एक समय गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे अनेकों विद्वान और देशभक्त की धरा अब बस राजनितिक और मजहबी गुंडों की भूमि बनकर रह गयी। पिछले दिनों रामनवमी पर धार्मिक हिंसा की शिकार पश्चिम बंगाल के आसनसोल में रहने वाली सोनी देवी किस तरह रोते हुए अपना जला हुआ घर दिखाते हुए कह रही थी कि मेरा घर बर्बाद हो गया, एक बना-बनाया संसार बर्बाद हो गया। बच्चा लोग को लेकर अब हम कहां जाएंगे? उसका सवाल अभी तक मेरे जेहन में गूंज ही रहा था कि अचानक से बहुत सारे सवाल चीत्कार कर उठें। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव में नामांकन के दिन से जो हिंसा शुरू हुई थी, वह पोलिंग के दिन बड़ा रूप धारण करती नजर आई। वोटिंग शुरू होने के बाद से ही कई इलाकों से बम धमाके, मारपीट, मतदान पेटी जलाने, बैलेट पेपर फेंकने और फायरिंग जैसी हिंसक घटनाओं की खबरें गूंजती रहीं। करीब 12 लोगों की मौत और घायल हुए लोगों की संख्या देखकर आसानी से पता लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था किस हाल में है। हिंसा किस दर्जे की थी इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि दक्षिणी 24 परगना में एक राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ता को जिंदा तक जला दिया गया।

आखिर चुनाव में व्यापक सुरक्षा इंतजाम किये जाने और पश्चिम बंगाल और पड़ोसी राज्यों से 60 हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात किये जाने के बावजूद इतनी हिंसक झड़प कैसे हुई? जिम्मेदार राज्य सरकार है या ये नाकामी बोझ एक बार राजनितिक भाड़े के हत्यारे के सर पर रख दिया जायेगा? हालाँकि एक बार फिर दिखावे के लिए कुछ धरपकड़ तो होगी ताकि आम लोगों के अन्दर कानून का डर बना रहे लेकिन सजा के नाम पर अंत वही ढाक के तीन-पात वाली कहावत होगी। क्योंकि बंगाल में जब पहले वामपंथी सरकार थी तब विपक्ष में खड़े होना चुनाव लड़ना यानि मौत को दावत देना था आज वही कार्यकर्ता ममता बनर्जी के खेमे में आ गये तो आज अन्य दलों के लिए वही स्थिति बनी हुई है।

राजनितिक और धार्मिक हिंसा के इस रक्तरंजित इतिहास को लेकर यदि थोड़ा पीछे जाये तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ;एन.सी.आर.बी.द्ध के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से झड़प की 91 घटनाएं हुईं और 205 लोग हिंसा के शिकार हुए। इससे पहले यानी वर्ष 2015 में राजनीतिक झड़प की कुल 131 घटनाएं दर्ज की गई थी और 184 लोग इसके शिकार हुए थे। वर्ष 2013 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से 26 लोगों की हत्या हुई थी, जो किसी भी राज्य से अधिक थी। बताया जा रहा है कि 1997 में वामदल की सरकार में गृहमंत्री रहे बुद्ध देव भट्टाचार्य ने विधानसभा में जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गये थे। ये आंकड़े राजनीतिक हिंसा की भयावह तस्वीर पेश करते हैं। समझ नहीं आता एक राज्य में सत्ता पाने की इस लड़ाई को हिंसा कहें या फिर मौत के आंकड़े देखकर मध्यकाल का कोई युद्ध कहें!

इसके इतर राजनितिक मामलों के विश्लेषक डॉ. विश्वनाथ चक्रवर्ती इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं, ‘बंगाल में कम उद्योग-धंधे हैं, जिससे रोजगार के अवसर नहीं बन रहे हैं जबकि जनसंख्या बढ़ रही है। खेती से बहुत फायदा नहीं हो रहा है। ऐसे में बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टी से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर मिलने वाले छोटे-मोटे ठेके और स्थानीय स्तर पर होने वाली वसूली भी उनके लिए कमाई का जरिया है। वे चाहते हैं कि उनके करीबी उम्मीदवार किसी भी कीमत पर जीत जाएं। इसके लिए अगर हिंसक रास्ता अपनाना पड़े, तो अपनाते हैं। असल में यह उनके लिए आर्थिक लड़ाई है।’ चक्रवर्ती आगे बताते हैं, ‘विधि-शासन में सत्ताधारी पार्टी का हस्तक्षेप भी राजनीतिक हिंसा में बढ़ा है इसके लिए अगर हिंसक रास्ता अपनाना पड़े तो अपनाते हैं। पिछले कुछ सालों से देखा जा रहा है कि कानून व्यवस्था को सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस ने अपनी मुट्ठी में कर लिया है और कानूनी व पुलिसिया मामलों में भी राजनीतिक हस्तक्षेप हो रहा है। यही वजह है कि पुलिस अफसर निष्पक्ष होकर कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं।

सत्ताधारी पार्टी जो कर रही है, उससे साफ है कि वह विपक्षी पार्टियों से खौफ खा रही है। लेकिन, राजनीतिक लड़ाइयां लोकतांत्रिक तरीके से लड़ी जानी चाहिए। राज्य में राजनीतिक हिंसा भले ही नई बात न हो, लेकिन तृणमूल कांग्रेस विरोधी पार्टियों पर जिस तरह हमले कर रही है, वह बंगाल के लिए एकदम नया है। पहले यह सब छिप-छिपाकर होता था, लेकिन अब खुलेआम हो रहा है। ममता बनर्जी तानाशाह बनकर एक तरफ विपक्षी पार्टियों पर हमले करवा रही है और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकतांत्रिक मोर्चा  भी तैयार करना चाहती है। ऐसे में उन पर यह सवाल उठेगा कि लोकतांत्रिक मोर्चा बनाने वाली ममता बनर्जी खुद कितनी लोकतांत्रिक हैं। हालाँकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। किन्तु यह हिंसक घटना पश्चिम बंगाल में न तो पहली बार है और न आखिरी। कभी मजहबी उबाल तो कभी राजनितिक उफान चलता रहेगा।..

 

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh