Menu
blogid : 23256 postid : 1368558

पाठशाला में संस्कारों का कत्ल

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

पांचवी पास करने के बाद जब छठी क्लास में दाखिला लिया तो क्लासरूम के बाहर लिखा देखा “विद्या विहीन पशु” “बिना विद्या के मनुष्य पशु के सामान होता है.” पर जब विद्या पाकर भी इन्सान हिंसक पशु जैसा व्यवहार करे, तो उसे क्या लिखा जाना चाहिए? कहीं न कहीं इसे विद्या में खोट कहा जाना चाहिए. इसमें कोई कमी ही कही ही जा सकती है, वरना भला क्यों एक 11 कक्षा का छात्र अपने जूनियर दूसरी क्लास के अपने से उम्र में बहुत छोटे 7 वर्षीय छात्र की गला रेतकर हत्या करता? सवाल यह भी उठना चाहिए कि शिक्षा के साथ संस्कार, नैतिकता ग्रहण करने गये एक नाबालिग छात्र के मन में इतनी क्रूरता इतनी हिंसा आई कहाँ से? रायन इंटरनैशनल स्कूल में प्रद्युम्न ठाकुर हत्या केस में आरोपी 11वीं कक्षा के छात्र को अब भारतीय न्यायप्रणाली जो भी सजा दे, लेकिन प्रद्युम्न माता-पिता को जो जीवन भर के लिए दुःख मिला उसकी भरपाई नहीं हो सकती है. उसने एक माँ की ममता को जीवन भर तड़पने के लिए छोड़ दिया.


bachpan


कहा जा रहा है आरोपी छात्र अधिकांश समय हताश रहता था. उसे परिजनों की ओर से दबाकर रखा जाता था. वह खुलकर नहीं बोलता था. इससे वह अंदर ही अंदर घुटन महसूस करता था. वह इस कदर कुंठित हो गया और कुंठा निकलने के लिए किसी दूसरे माता-पिता के सपनों का गला चाकुओं से रेत दिया. लेकिन सवाल फिर वही आता है कि आखिर ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? कहीं ऐसा तो नहीं इन सब हालात के लिए हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोषी है? जिसमें तुलना, आगे निकलने की होड़ में बच्चों को धकेला जा रहा हो. उनके मासूम से मस्तिष्‍कों को प्रेशर कुकर बनाया जा रहा है. शायद यही कारण रहा होगा कि रायन स्कूल में प्रेशर कुकर बनाया गया एक मस्तिष्‍क फट गया, जिसने एक मासूम को अपनी चपेट में ले लिया.


आधुनिकता में ओतप्रोत लोग कहते हैं कि प्राचीन भारत का महिमामंडन अब नहीं होना चाहिएद्व लेकिन हमारा वर्तमान इतना खोखला हो चुका था कि अतीत से आत्मबल तलाशने के लिए प्राचीन शिक्षा प्रणाली का महिमामंडन जरूरी हो जाता है. नये भारत को समझने के अतीत के भारत को समझने के लिए गहन प्रयास जब तक नहीं होंगे, तब तक ऐसी हिंसक घटनाओं से दो चार होने से हमें कौन रोक सकता है. हमें समझना होगा कि हम सब हिंसा के शिकार हैं. हिंसा के चक्र में ही जीने के लिए अभिशप्त होते जा रहे हैं. इसलिए बड़े और महंगे स्कूलों का गुणगान करने से पहले इस हिंसा का चेहरा देख लीजिए जो भारत का भविष्य निगलने के लिए कतार में खड़े हैं.


बच्चे को महंगे स्कूल और खर्च के लिए रकम देने से संस्कार नहीं आते हैं. यह भी देखना जरूरी है कि बच्चा किस ओर जा रहा है. घर में खुलापन होना चाहिए. बच्चों पर किसी तरह का अनावश्यक दबाव नहीं होना चाहिए. अगर यह होता है तो बच्चा बाहर इसे दूसरे पर निकालता है. कामयाबी के चक्कर में आज बच्चे बहुत अकेले पड़ गए हैं. घरों में सन्नाटा पसर गया हैं. दिमाग पर जोर डालिए, सोचिये आज मेट्रो शहरों में कितनी माओं की गोद में बच्चा देखते हैं. ऐसा नहीं है कि इनमें कोई माँ नहीं है, लेकिन भागती दौडती जिन्दगी ने इनकी गोद से बच्चे छीन लिए, जिस कारण वो बच्चे या तो अकेलेपन में पल रहे हैं या फिर किसी दूसरे के सहारे. अधिकांश को सहारा किराये का होता है. बिना संस्कार, बिना ममता, बिना वात्सल्य आदि के पलता वो बच्चा भविष्य में क्या देगा, यह आप बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं.


आधुनिक भारत में शिक्षा प्रणाली और माता-पिता की सबसे बड़ी विफलताओं में दो कारण हैं, एक तो यह कि बच्चे की सीखने की अक्षमताओं की पहचान करने में असमर्थता और जीवन के अंत में शैक्षणिक विफलता पर विचार करने में असमर्थ हैं. दूसरा आत्मनिरीक्षण कहा जाता है बच्चे के जीवन में माता-पिता और गुरु एक महत्वपूर्ण तत्व है. सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे समुल्लास में शतपथ ब्राह्मण का हवाला देते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने कहा है कि मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद.


अर्थात जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है. यहाँ ज्ञानवान होने अर्थ यह नहीं कि माता-पिता बड़े डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य कोई बड़ा पद रखते हों, बल्कि सामाजिकता, आध्यात्मिक का इसमें गहन अर्थ छिपा है. हम प्राचीन समय में देखें तो पता चलेगा की उस दौर में शिक्षा प्रणाली सरल थी. प्राचीन समय में इसके तनावपूर्ण होने का भी कोई संकेत नहीं मिलता है. अब, भारत में शिक्षा प्रणाली बदल गयी है और आज के दौर में पढाई तनावपूर्ण हो चुकी है.


इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि दबाव का एक बड़ा हिस्सा माता-पिता की तरफ से आता है. महाराष्ट्र और तमिलनाडु इसका उदाहरण हैं, जहाँ बच्चों पर उनके माता-पिता द्वारा हाईस्कूल में विज्ञान और गणित लेने के लिए बाध्य किया जाता है, ताकि वह आगे चलकर डॉक्टर या इंजीनियर बन सकें. बच्चों के वाणिज्य या कला में रुचि के विकल्प को नकार दिया जाता है. अब भारत में शिक्षा चुनौतीपूर्ण, प्रतिस्पर्धात्मक हो चुकी है और परिणाम को ज्यादा महत्व दिया जाता है. बच्चों की योग्यता का मूल्यांकन शैक्षिक प्रदर्शन पर किया जाता है न कि नैतिक. बच्चे को असहमति का अधिकार है? लेकिन इसके उलट शिक्षा और व्यवहार में उसको समझाने और प्रेरणा देने की बजाय मजबूर किया जा रहा है.


स्कूल में छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन और टॉप करने के लिए दबाव रहता है, तो घरों में कई बार ये दबाव परिवार, भाई- बहन और समाज के कारण होता है. दबाव को लेकर उदास छात्र तनाव से ग्रसित होने के साथ ही पढ़ाई भी बीच में छोड़ देते हैं. ज्यादा मामलों में तनाव से प्रभावित छात्र आत्महत्या का विचार भी मन में लाते हैं और बाद में आत्महत्या कर लेते हैं. ये बात तो आप भी मानते होंगे कि बचपन की सीख जीवनभर साथ रहती है. बचपन की बातें और यादें हमेशा हमारे साथ बनी रहती हैं. ऐसे में ये माता-पिता की जिम्मेदारी बन जाती है कि वो अपने बच्चे को कम उम्र में ही उन बातों की आदत डाल दें, जो उसके आने वाले कल के लिए जरूरी है, ताकि शिक्षा की पाठशाला में संस्कारों का कत्ल होने से बचाया जा सके.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh