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शिक्षित माता सदा प्रसन्नता देने वाली होती है

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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वेद में विदुषी स्त्री को राका कहा गया है। इसका भाव यह है कि जो स्त्री नित्य स्वाध्याय करते हुए इसके गूढ़ रहस्यों को जान गई हो, जो स्त्री वेद की पूर्ण अधिकारी बन गई हो, वह स्त्री राका कहलाने की सच्चे अर्थों में अधिकारी बन जाती है। यदि राका शब्द का अर्थ करें तो हम इसका अर्थ पूर्णमासी तथा दानशील के रूप में करते हैं। जिस प्रकार पूर्णमासी को सब आनान्दित होते हैं, उस प्रकार ही स्त्री का भी तदनुरूप सब परिजनों को आनंदित करने वाली होना आवश्यक है। पूर्णमासी तथा दानशील से यह ही तात्पर्य लिया जाता है। इसलिए ही कहा गया है कि स्त्री सदा प्रसन्न रहने वाली हो तथा अपने समग्र परिवार को भी प्रसन्न रखने की क्षमता उसमें हो। इस सम्बन्ध में ऋग्वेद में इस प्रकार उपदेश किया गया है।

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३८  वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा

राकामहं सुहवां सुष्टुति हुवे शरूण तु नरू सुभगा बोधतु तमना सीव्यतवप: सूच्याच्छिद्यमानया ददातु वीरं श्तदायमुक्थ्यम् ||ऋग्वेद २.३२.४||

मन्त्र कहता है कि मैं उस स्त्री को बुलाता हूं, उस स्त्री का आह्वान करता हूं, जो पूर्णमासी के समान सदा प्रसन्न वदना हो। अर्थात् जिस प्रकार पूर्णमासी को सब ओर आनंद ही आनंद दिखाई देता है, सब लोग प्रसन्न ही प्रसन्न दिखाई देते हैं, उस प्रकार ही हमारी स्त्रियां भी सब ओर प्रसन्नता बिखेरने वाली हों। हमारी स्त्रियां हमारे परिवार के सब सदस्यों को अपने उत्तम व्यवहार से आह्लादित करने वाली हों। सब पर खुशियां बिखेरने वाली हों। हमारे परिवार की स्त्रियां सदा सुमधुर अथवा अत्यधिक मधुर वाणी बोलने वाली हों। उनकी वाणी में इस प्रकार की मधुरता भरी हो, जिसे सुनने मात्र से ही ह्रदय आह्लादित हो जाए। जिसे सुनने मात्र से ही मन रूपी कमल प्रसन्नता से खिल जाए। मन्त्र कहता है कि सब ओर प्रसन्नता बिखेरने वाली तथा सब को प्रसन्न रखने वाली इस स्त्री के लिए अत्यंत सुन्दर शब्दों से, अत्यंत आदर के साथ मैं बुलाता हूँ, उसका आह्वान करता हूं।

सर्वदा अटूट हो

मन्त्र आगे उपदेश करते हुए हमें कह रहा है कि इस प्रकार सब ओर आनंद की, सब ओर प्रसन्नता की वर्षा करने वाली। उत्तम ज्ञान की स्वामी। उत्तम वेद ज्ञान की अधिकारी। सब प्रकार के धर्मों का पालन करने वाली। सब प्रकार के सौभाग्यों की वर्षा करते हुए, न केवल स्वयं ही अपितु हमें भी सौभाग्यशाली बनाने वाली यह देवी हमारे वचनों को सुने। हमारी प्रार्थना को सुने, वह हमारे उद्बोधन को न केवल सुने अपितु अपने आत्मा से इसे समझे भी, हमारी यह सौभाग्यशाली देवी माता उस सुई से परिवार को सीने का, बांधने का काम करे, जो सुई कभी न टूटने वाली हो। भाव यह है कि जिस भी औजार का यह स्त्री परिवार को बांधने के लिए प्रयोग करे, वह औजार सर्वदा अटूट हो, कभी न टूटने वाला न हो, स्थायित्व प्रदान करे।

इस प्रकार वह परिवार को बांधने का कार्य करते हुए उसे स्थायित्व प्रदान करे। इस प्रकार से बांधे, इस प्रकार से इसकी सिलाई करे कि यह परिवार फिर कभी टूटने न पाए। इस प्रकार परिवार को एक सूत्र में बांधने के लिए जो सीने व पिरोने का यह कार्य करती है, यह कार्य हमारी यह देवी अत्यंत प्रेम से तथा अत्यंत प्रसन्नता से करे। इस कार्य को करने में वह अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करे।

३९   वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा

संतान पुरुषार्थी तथा वीर हो

मन्त्र आगे उपदेश करते हुए कह रहा है कि हमारी यह देवी इस प्रकार की संतान को जन्म दे, जो परिवार को अत्यधिक सुख देने वाली हो तथा अत्यंत वीर भी हो। पुरुषार्थी प्राणी सदा अपने पुरुषार्थ से इतना कमा लेता है, जिससे न केवल वह अपना तथा अपने परिवार का ही भरण-पोषण कर सकता है, अपितु अन्य लोगों की सहायता करने में भी सक्षम होता है। यह पुरुषार्थी व्यक्ति पुरुषार्थ के साथ-साथ वीर भी होता है। वह अपनी तथा अपने परिवार की सब प्रकार से रक्षा तो करता ही है, इसके साथ ही अपने मित्रों, नगर तथा देश का रक्षक भी बनता है। इसलिए मन्त्र ने उपदेश किया है कि इस माता से एेसी उत्‍तम संतान पैदा हो, जो पुरुषार्थ करने वाली तो हो ही, साथ ही वीर भी हो।

इस सबका भाव यह है कि मन्त्र के अनुरूप हमारी स्त्रियां पूर्णमासी के समान सदा प्रसन्न रहने वाली तथा सबको प्रसन्न रखने वाली हों। प्रसन्न रहते हुए सदा उत्‍तम भाषण करते हुए तथा अपने उत्‍तम व्यवहार से सबको प्रसन्न करने वाली हों। वह सदा मधुर वचनों के प्रयोग से उच्चारण करते हुए धर्म पर आचरण करें। सीना-पिरोना आदि जो भी गृहकार्य हैं, उन सबको अति प्रेम से करने वाली हों तथा इन कार्यों को करने में उसे प्रसन्नता अनुभव हो।

माता के लिए यह भी आवश्यक है कि जिस संतान को वह जन्म दे, वह संतान सब ओर से प्रशंसा प्राप्त करने वाली हो, जो प्रसन्नता उसके प्रशंसनीय कार्यों से मिलती है। यह संतान दान करने में भी न केवल सक्षम हो, अपितु दान करने में भी आनंद का अनुभव करने वाली हो।

इस प्रकार यह मन्त्र श्रेष्ठ संतान उत्पन्न करने का उपदेश देता है। मन्त्र स्पष्ट संकेत कर रहा है कि हमारी स्त्रियां सब प्रकार के वेदोक्त कर्मों के पालन करने में सर्वदा समर्थ हों। यदि वे वेदोक्त आदेशों के पालन में समर्थ होंगी, तो निश्चय ही वह अपने परिजनों को सदा प्रसन्न रखने में सक्षम होंगी। उसकी सुई सदा अटूट रहते हुए परिवार को संगठन के बंधन में बांधने व पिरोने में सफल होगी। वह इस प्रकार की संतान को जन्म देगी, जो पुरुषार्थी होने के कारण बहुत से धनों का स्वामी बनकर अत्यधिक प्रसन्न रहते हुए सदा दान देने में ही प्रसन्नता अनुभव करेगी।

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