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आज सत्यार्थ प्रकाश के अंत में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः देख रहा था, उसमें स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने शिक्षा की परिभाषा देते हुए लिखा है कि जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उसको शिक्षा कहते हैं। स्वामी जी के कथन को पढ़ने के बाद अचानक एक-एक कर शिक्षा के नाम पर देश के स्कूलों में बच्चों पर हो रहे शारीरिक, मानसिक अत्याचार याद आने लगे कि आखिर हमारी शिक्षा व्यवस्था कितने उत्तम शिखर से खिसकर कितने निम्न स्तर की ओर जा रही है।
हाल ही में हुई गुरुग्राम वाली घटना याद आने लगी। आखिर क्यों यह सब और किसके लिए हो रहा है? क्यों इस शिक्षा के लिए मासूम बच्चों को रोंदा जा रहा है। 7 वर्ष के छात्र प्रद्युम्न की हत्या के मामले की जांच में जैसे-जैसे पुलिस आगे बढ़ा रही है, वैसे-वैसे स्कूल प्रशासन की लापरवाही की परतें दिन-प्रतिदिन खुलती नजर रही हैं।
सुनकर हैरानी भी होती है कि रेयान इंटरनेशनल स्कूल की लापरवाही की लिस्ट कितनी लम्बी है। स्कूल के छोटे बच्चे बता रहे हैं कि दो महीने पहले इसी स्कूल के प्रथम तल के टॉयलेट में क्लास ग्यारह और बारह के बच्चे शराब पी रहे थे। जब स्कूल के छोटे बच्चों ने उनकी ये करतूत देख ली तो इन छात्रों ने उन्हें अंजाम भुगतने की धमकी दी थी।
स्कूल में छोटी क्लास के इन छात्रों ने जब इस बात की शिकायत रेयान स्कूल की सुपरवाइजर और स्कूल की स्पोर्ट्स टीचर से की, तो उन्होंने इस बात को यहां पर दबा देने की बात कही और परिवार को भी न बताने की बच्चों को हिदायत दी थी।
आखिर हमारा समाज किस शिक्षा के लिए मारा-मारी में लगा है। क्यों इस शिक्षा के लिए मासूम बच्चों का मस्तिष्क प्रेशर कुकर बनाया जा रहा है। सिर्फ अपने स्थानीय समाज, परिवार और रिश्तेदारों को यह दिखाने के लिए कि देखिये हमारे बच्चे कितने महंगे स्कूल में पढ़ते हैं? इसके बाद जब यह बच्चे बड़े होते हैं, तब इनमें एक दो डॉ. या इंजीनियर बनते हैं। यह खबर तो बड़ी बनाकर सुनाई जाती है, लेकिन अधिकांश बच्चों में समाज और परिवार के प्रति जो नैतिकता शून्य होती है, उसका वर्णन नहीं किया जाता।
लगता है वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य केवल ऐसी शिक्षा का देना है, जिसमें आर्थिक शक्ति का आगमन हो और बच्चे के अन्दर से मनुष्यता के बीज हमेशा के लिए मिटा दिए जाये। समाचारपत्रों से यह भी जानकारी मिली है कि रेयान स्कूल के कुछ बच्चों और अभिभावक बता रहे हैं कि स्कूल की बाउंड्री के अंदर ही ड्राइवर लोग शराब पीते थे और ताश खेलते थे।
स्वामी जी कहते है कि ‘संस्कार उनको कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। हम पूछते हैं कि क्या ऐसी व्यवस्था में पढ़ने वाले बच्चे संस्कारवान बन सकते हैं?’ शिक्षा का मंदिर जिसे स्कूल कहा जाता है, ऊंचे भवन से या वहां के स्टाफ के आचरण व्यवहार से बड़ा बनता है, यह भी लोगों को सोचना चाहिए।
स्वामी जी आगे कहते है कि ‘जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला हो, शिष्य उस को कहते हैं।’ लेकिन आज के मौजूदा दौर में यह पवित्र रिश्ता भी छिन्न-भिन्न हो चुका है। कहीं से खबर आती की बच्चों ने महिला अध्यापक पर फब्तियां कसी, तो किसी खबर में सुनने को आता है स्कूल में इंग्लिश की टीचर ने 13 साल के बच्चे से यौन सम्बन्ध बनाये।
भला एक गौरवशाली परम्परावादी भारतीय समाज का इससे बिगड़ा रूप और क्या होगा? समय की मांग है कि बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श के बारे में समझाएं। इसमें झिझक की कोई बात नहीं है, बल्कि ये बच्चों की सुरक्षा के लिए सबसे जरूरी कदमों में से एक है। उसके भीतर विश्वास भरें कि आप हर हाल में उसके साथ हैं, ताकि वह खुलकर अपनी बात आपसे साझा कर सके।
कई बार बच्चे आपस में भी छेड़छाड़ का शिकार होते हैं। जैसे बड़े बच्चे किसी बात को लेकर छोटी क्लास के बच्चों को तंग करते हैं। कई बार ये तंग करना बच्चों को शारीरिक या भावनात्मक नुकसान पहुंचाता है। माना कि भौतिक और आर्थिक सफलता आज जरूरी है। अशिक्षित मनुष्य के सामने कोई राह नहीं होती। मगर शिक्षित को बड़ा आॅफिसर, डॉक्टर या फिर नेता बन जाना चाहिए, लेकिन सवाल फिर वही आता है क्या बिना संस्कार, बिना नैतिकता के, बिना ऊँचे आदर्शों के यह सफलता समाज के लिए घातक नहीं होगी?
प्रद्युम्न मामले में एक वकील सुजीता श्रीवास्तव के माध्यम से दायर जनहित याचिका में स्कूल की चारदीवारी के भीतर बार-बार छात्रों के शोषण और बाल यौन शोषण की हो रही घटनाओं का मुद्दा उठाया है। जिसे लेकर समाज बिल्कुल भी जागरूक नहीं है, लेकिन इस विषय पर समाज का एक बड़ा हिस्सा बात करना भी अनुचित या शर्म और संकोच का विषय समझता रहा है।
यदि इक्का-दुक्का मामले सामने भी आये, तो परिवारों ने मिलकर इस पर शर्म-संकोच का पर्दा डालने का कार्य किया। जिस कारण पूरे देश में बच्चों के साथ होने वाले अपराध लगातार बढ़ते जा रहे हैं। जबकि स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में लिखते हैं कि जब आठ वर्ष के हो तभी लड़कियों को लड़कियों की और लड़कों को लड़कों की पाठशाला में भेज दिया जाये और दुष्टाचारी अध्यापक और अध्यापिकाओं से शिक्षा न दिलावें।
बचपन में घर, आसपास का माहौल और स्कूल किसी भी बच्चे के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालता है। आधुनिक स्कूलों से निकले आचरण हीन अध्यापक, पैसा कमाने की मशीन बने स्कूल, नित्य बच्चों को बिगाड़ने के कारखाने खोलते जा रहे हैं। इसके बाद अक्सर बहुतेरे माता-पिता रोते दिख जाते हैं कि हमारा बेटा या बेटी हमारी बात नहीं सुनते और हम पर झल्लाते-चिल्लाते हैं, तो सोचिये क्या आपने उसे इस नैतिक शिक्षा के लिए उसे स्कूल में भेजा था? वहां उसे जो मिला आज वह वही आपको दे रहा है। आज की शिक्षा व्यवस्था को देखकर लगता है कि स्वामी जी का कथन प्रासंगिक है।
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