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आर्य समाज का सामाजिक सुधार में योगदान

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भारत जब आजाद नहीं हुआ था उस समय देश में कई कुरीतियां और अन्य सामाजिक बुराइयां देश में फैली हुई थीं. इन बुराइयों और कुरीतियों को दूर करने के लिए कई नेताओं ने तरह-तरह के आंदोलन चलाए जिनका मकसद था समाज में फैली कुरीतियों को दूर करना.


ऐसे ही आंदोलन और कार्यक्रम की शुरुआत स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी. आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी. यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था. आर्य समाजी शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे. इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया गया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया गया था. स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित “सत्यार्थ प्रकाश” नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है. आर्य समाज का आदर्श वाक्य है- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है – विश्व को आर्य बनाते चलो.



आर्यसमाज की स्थापना: 10 अप्रैल सन 1875 को बम्बई में दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की. उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे चरण में भारत में जागृति के जो चतुर्दिक आंदोलन आरंभ हुए, उनमें आर्य समाज का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है.



आर्य समाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:



1. सभी शक्ति और ज्ञान का प्रारंभिक कारण ईश्वर है.


2. ईश्वर ही सर्व सत्य है, सर्व व्याप्त है, पवित्र है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का कारण है. केवल उसी की पूजा होनी चाहिए.


3. वेद ही सच्चे ज्ञान ग्रंथ हैं.


4. सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए.


5. उचित-अनुचित के विचार के बाद ही कार्य करना चाहिए.


6. मनुष्य मात्र को शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए.


7. प्रत्येक के प्रति न्याय, प्रेम और उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए.


8. ज्ञान की ज्योति फैलाकर अंधकार को दूर करना चाहिए.


9. केवल अपनी उन्नति से संतुष्ट न होकर दूसरों की उन्नति के लिए भी यत्न करना चाहिए.


10. समाज के कल्याण और समाज की उन्नति के लिए अपने मत तथा व्यक्तिगत बातों को त्याग देना चाहिए.



इनमें से प्रथम तीन सिद्धांत धार्मिक हैं और अंतिम सात नैतिक हैं. आगे चलकर व्यवहार के स्तर पर आर्य समाज में भी विचार-भेद पैदा हो गया. एक वर्ग ‘दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की विचारधारा की ओर चला और दूसरे ने ‘गुरुकुल’ की राह पकड़ी. यह उल्लेखनीय है कि देश के स्वतंत्रता-संग्राम में आर्य समाज ने संस्था के रूप में तो नहीं, पर सहसंस्था के अधिकांश प्रमुख सदस्यों ने व्यक्तिगत स्तर पर महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की.


आर्यसमाज ने देश में अनेक सुधार कार्य किए जिनकी वजह से आज आर्य समाज को देश और विदेश में काफी मान्यता प्राप्त है. देश को आज भी ऐसे ही एक आंदोलन की जरुरत है जो देश में नैतिकता की लहर ला सके.

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