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भारत संतों की भूमि है. यहा समय समय पर कई संतों ने जन्म लिया और समाज में भक्ति का प्रचार-प्रसार किया. महाराष्ट्र भारत का ऐसा ही एक राज्य है जिस पर कई संतों ने जन्म लिया. महाराष्ट्र के इन महान संतों में से एक हैं – संत नामदेव. निर्गुण संतों में अग्रिम संत नामदेव वस्तुत: उत्तर-भारत की संत परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं. मराठी संत-परंपरा में तो वह सर्वाधिक पूज्य संतों में हैं. मराठी अभंगों(विशेष छंद) के जनक होने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है. उत्तर-भारत में विशेषकर पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि सिखों के प्रमुख पूज्य ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में उनकी वाणी संकलित है, जो प्रतिदिन अब भी बडी श्रद्धा से गाई जाती है.
संत नामदेव का जन्म 26 अक्टूबर, 1270 ई. को महाराष्ट्र में नरसी बामनी नामक गांव में हुआ. इनके पिता का नाम दामाशेट था और माता का नाम गोणाई था. कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान पंढरपुर मानते हैं. ये दामाशेटबाद में पण्ढरपुर आकर विट्ठल की मूर्ति के उपासक हो गए थे. इनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था. अभी नामदेव पांच वर्ष के थे. तब इनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए. बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है. नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा. मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं. कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया.
बड़ा होने पर इनका विवाह राजाबाई नाम की कन्या से कर दिया गया. इनके चार पुत्र हुए तथा एक पुत्री.
पंढरपुर से पचास कोस की दूरी पर औढ़िया नागनाथ के शिव मंदिर में रहने वाले विसोबाखेचर को इन्होंने अपना गुरु बनाया. संत ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए. अवैद एवं योग मार्ग के पथिक बन गए. ज्ञानदेव से इनकी संगति इतनी प्रगाढ़ हुई कि ज्ञानदेव इन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी, अयोध्या, मारवाड (राजस्थान) तिरूपति, रामेश्वरम आदि के दर्शन-भ्रमण किए.
फिर सन् 1296 में आलंदी में ज्ञानदेव ने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेव के बडे भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली. इसके एक महीने बाद ज्ञानदेव के दूसरे भाई सोपानदेव और पांच महीने पश्चात मुक्तबाई भी समाधिस्थ हो गई. नामदेव अकेले हो गए. उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे. इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवालस्थान पर पहुंचे. फिर वहां घुमान(जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया. तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णुस्वामी, परिसाभागवते, जनाबाई, चोखामेला, त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी.
संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए. चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे. वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है. तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है. इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है. सभी जीवों का सृष्टाएवं रक्षक, पालनकत्र्ताबीठलराम ही है, जो इन सब में मूर्त भी है और ब्रह्मांड में व्याप्त अमूर्त्त भी है. इसलिए नामदेव कहते हैं:-
जत्रजाऊं तत्र बीठलमेला।
बीठलियौराजा रांमदेवा॥
सृष्टि में व्याप्त इस ब्रह्म-अनुभूति के और इस सृष्टि के रूप आकार वाले जीवों के अतिरिक्त उस बीठलका कोई रूप, रंग, रेखा तथा पहचान नहीं है. वह ऐसा परम तत्व है कि उसे आत्मा की आंखों से ही देखा अनुभव किया जा सकता है. संत नामदेव का “वारकरी पंथ” (वारकरी संप्रदाय) आज तक उत्तरोत्तर विकसित हो रहा है.
वारकरी संप्रदाय :सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढी और कार्तिकी एकादशी को विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर की ‘वारी’ (यात्रा) किया करती है . यह प्रथा आज भी प्रचलित है . इस प्रकार की वारी (यात्रा) करने वालों को ‘वारकरी’ कहते हैं . विठ्ठलोपासना का यह ‘संप्रदाय’ ‘वारकरी’ संप्रदाय कहलाता है . नामदेव इसी संप्रदायके एक प्रमुख संत माने जाते हैं .
उन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में पंढरपुर में विट्ठल के चरणों में आषाढ़ त्रयोदशी संवत 1407 तदानुसार 3 जुलाई, 1350ई. को समाधि ली.
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