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उनके दिल में देशभक्ति का जज्बा था. उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया. वैज्ञानिक-ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी. भावी भारत की तस्वीर उन्होंने अपने जीवन काल में ही देख लिया था. 28 सितंबर, 1907 को अविभाजित भारत के लायलपुर बंगा में जन्में शहीदे आजम भगत सिंह (Bhagat Singh)बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे. उनके दादा अर्जुन सिंह आर्य समाजी थे. दो चाचा स्वर्ण सिंह व अजीत सिंह स्वाधीनता संग्राम में अपना जीवन समर्पित कर चुके थे. उनके पिता किशन सिंह कांग्रेस पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे. पारिवारिक संस्कारों के अलावा उनमें गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति गहरा आकर्षण था.
क्रांति की नई परिभाषा दी
आज पूरे विश्व में क्रांति की अलग-अलग परिभाषा दी जा रही है. कोई इसे हिंसा से जोड़ रहा है तो कोई परिवर्तन से मगर क्रांति के बारे में खुद भगत सिंह के विचार कुछ और थे. वह कहते थे, क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है. भगत सिंह (Bhagat Singh) ने क्रांति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा था कि क्रांति से हमारा अभिप्राय एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था से है, जिसको इस प्रकार के घातक हमलों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो. यानी भगत सिंह हक और इंसाफ की लड़ाई में हिंसा को जायज नहीं मानते थे. उनकी लड़ाई सिर्फ व्यवस्था से थी.
सांप्रदायिक प्रगति के रास्ते में रुकावट
आजादी के इतने साल भी आज हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. संप्रदायवाद और जातिवाद ने देश को अंधकार के गर्त में धकेल दिया है. बढ़ती सांप्रदायिकता और जातिवाद से लड़ने के लिए आज भी भगत सिंह के विचार कारगर हो सकते हैं. भगत सिंह (Bhagat Singh)ने कहा था, सांप्रदायिकता प्रगति के रास्ते में बड़ी रुकावट हैं. हमें इसे दूर फेंक देना चाहिए.
ब्रिटिश हुकूमत ने सरकार के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने वाले सरदार भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को फांसी की सजा सुनाई थी. उस समय वह 23 साल के थे. उनकी जो भी छोटी सी जिंदगी रही उस पर यदि हम गौर करें तो उनके जीवन के आखिरी चार साल क्रांतिकारिता के थे. इन चार सालों में भी, उन्होंने अपने दो साल जेल में बिताए, लेकिन इन चार सालों में उन्होंने एक सदी का सफर तय किया.
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