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आज के फिल्मी सितारे पर्दे पर हर तरह का रोल निभा लेते हैं फिर वह चाहे निगेटिव रोल हो या किसी बिंदास युवा का पर कुछ दशक पहले अभिनेता की इमेज बंधी होती थी. लोग उसे सिर्फ अभिनेता की ही इमेज में देखना पसंद करते थे और वह भी अगर अभिनय के कुछ इमरान हाशमी जैसे हॉट सीन देने वाला हो तो एक सिरे से नकार दिया जाता था. पर कहते हैं ना जो जमाने की नहीं सुनता उसकी वक्त सुनता है और सफल वही होता है जो लीक से हटकर काम करे. ऐसे ही थे अभिनेता फिरोज खान. अपनी अलग शैली, अंदाज और अलग-अलग किरदारों में जान फूंकने की क्षमता की वजह से फिरोज़ खान को बॉलिवुड का कॉवबॉय (COWBOY) कहा जाता था.
) ने चन्द फिल्मों में ही काम करके इतना नाम कमाया जिसके लिए कई अभिनेता बरसों मेहनत करते रहते हैं. चाहे फिल्मों में एक सुंदर हीरो की भूमिका हो या खूंखार विलेन का रोल, फिरोज खान हर किरदार में जान डाल देते थे.
) का जन्म 25 सितंबर, 1939 को बेंगलूर में हुआ था. अफगानी पिता और ईरानी मां के बेटे फिरोज खान बंगलुरू से हीरो बनने का सपना लेकर मुंबई पहुंचे.
उनके दो भाई संजय खान (अभिनेता-निर्माता) और समीर खान (कारोबारी) हैं. उनकी एक बहन हैं, जिनका नाम दिलशाद बीबी है.
फिरोज खान के पुत्र फरदीन खान भी अभिनेता हैं और कहा जा सकता है कि स्टाइल के मामले में पिता और पुत्र में कुछ समानताएं है पर अभिनय में फरदीन खान अपने पिता से कोसों दूर हैं.
) ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की. इस फिल्म में वह सह अभिनेता थे. वर्ष 1962 में फिरोज खान ने अंग्रेजी भाषा की एक फिल्म टार्जन गोज़ टू इंडिया में काम किया. इस फिल्म में नायिका सिमी ग्रेवाल थीं. लेकिन फिरोज खान के कैरियर में पहली सफल फिल्म आई साल 1965 में फिल्म “ऊंचे लोग”. साल 1969 में फिरोज खान के अभिनय को पहली बार फिल्मफेयर की पहचान मिली. फिल्म आदमी और इन्सान (1970) में अभिनय के लिए फिरोज खान को फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का पुरस्कार मिला.
) के कैरियर के लिए कई मील के पत्थर लेकर आया. इस दशक में उन्होंने आदमी और इंसान, मेला और धर्मात्मा जैसी बेहतरीन फिल्में दीं. इसी दशक में उन्होंने निर्माता-निर्देशक के रूप में अपना सफर शुरू किया. उनके इस सफर की शुरुआत फिल्म धर्मात्मा से हुई. वर्ष 1980 की फिल्म कुर्बानी से उन्होंने एक सफल निर्माता-निर्देशक के रूप में सभी को अपनी कूव्वत का लोहा मनवाया. कुर्बानी उनके कैरियर की सबसे सफल फिल्म रही. इसमें उनके साथ विनोद खन्ना भी प्रमुख भूमिका में थे.
) की पहली हिट फिल्म भी थी. यह फिल्म हॉलीवुड की फिल्म गॉडफादर पर आधारित थी. फिरोज खान आखिरी बार फिल्म “वेलकम” में नजर आए थे. अपनी आखिरी फिल्म में भी उन्होंने अपनी स्टाइल की छाप छोड़ी. सफर, खोटे सिक्के, अपराध, धर्मात्मा, दयावान, गीता मेरा नाम, कुर्बानी और नागिन उनकी उल्लेखनीय फिल्में हैं. कुर्बानी के रीमेक की उनकी आखिरी ख्वाहिश पूरी नहीं हो सकी.
हालांकि अपनी अलग शैली की वजह से फिरोज के जितने चाहने वाले थे उतना ही उनसे नफरत करने वाले भी थे. उन्हें अपने मुखर, खुले, आक्रामक और एक हद तक अहंकारी स्वभाव के कारण बदनामी झेलनी पड़ी. इसके बावजूद उन्होंने छवि सुधारने की कोशिश नहीं की. अपने लापरवाह अंदाज में जीते रहे. साल 2010 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट का खिताब दिया गया.
फिल्मी पर्दे पर फिरोज जितने बेबाक थे उतना ही वह असल जिंदगी में भी थे. इसका एक छोटा सा उदाहरण देने के लिए एक घटना की तरफ ध्यानाकर्षित करना चाहेंगे. कुछ साल पहले वह अपने छोटे भाई अकबर खान की फिल्म “ताजमहल” के पाकिस्तान प्रीमियर के मौके पर वे हिंदी फिल्म बिरादरी की टीम के साथ पाकिस्तान गए थे. वहां एक प्रसंग में उन्होंने पुरजोर तरीके से ताकीद की कि भारत एक सेक्युलर देश है. उनकी मुखरता पाकिस्तान को रास नहीं आई थी और विवाद उठ खड़ा हुआ था. फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे कई प्रसंग और किस्से हैं, जिनमें फिरोज खान ने बेधड़क दिल की बात रखी. अपने इस बिंदास और बेखौफ मिजाज के कारण वे आलोचना के शिकार हुए और कई बेहतरीन फिल्में उनके हाथों से निकल गयीं.
हालांकि फिरोज खान ने असल जिंदगी में काफी संघर्ष भी किया है. वह काफी लंबे समय तक कैंसर से पीड़ित रहे थे. 27 अप्रैल, 2009 को उन्होंने बैंगलूरू के अपने फार्म हाउस पर आखिरी सांसें लीं.
फिरोज खान की ज्योतिषीय विवरणिका देखने के लिए यहां क्लिक करें.
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