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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के कई क्रांतिकारी वीर-सपूतों की याद आज भी हमारी रुह में जोश और देशप्रेम की एक लहर पैदा कर देती है. एक वह समय था जब लोग अपना सब कुछ छोड़कर देश को आजाद कराने के लिए बलिदान देने को तैयार रहते थे और एक आज का समय है जब अपने ही देश के नेता अपनी ही जनता को मार कर खाने पर तुले हैं. देशभक्ति की जो मिशाल हमारे देश के क्रांतिकारियों ने पैदा की थी अगर उसे आग की तरह फैलाया जाता तो संभव था आजादी हमें जल्दी मिल जाती लेकिन नरमदल और गरमदल के मतभेदों के कारण आज भी लोग क्रांतिकारियों को वह सम्मान नहीं देते जो उन्हें देना चाहिए था. क्रांतिकारी नेताओं ने कभी भी राजनीति में दखल देने की कोशिश नहीं की और शायद यही वजह है कि लोग उन्हें कम आंकते थे. पर असल मायनों में जो वीरता और पराक्रम की कहानी हमारे देश के वीर क्रांतिकारियों ने रखी थी वह आजादी की लड़ाई की विशेष कड़ी थी जिसके बिना आजादी मिलना नामुमकिन था.
देशप्रेम, वीरता और साहस की एक ऐसी ही मिशाल थे शहीद क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद. 25 साल की उम्र में भारत माता के लिए शहीद होने वाले इस महापुरुष के बारें में जितना कहा जाए उतना कम है. अपने पराक्रम से उन्होंने अंग्रेजों के अंदर इतना खौफ पैदा कर दिया था कि उनकी मौत के बाद भी अंग्रेज उनके मृत शरीर को आधे घंटे तक सिर्फ देखते रहे थे, उन्हें डर था कि अगर वह पास गए तो कहीं चन्द्रशेखर आजाद उन्हें मार ना डालें. वीरता के ऐसे नमूने कम ही देखने को मिलते हैं.
चन्द्रशेखर आजाद का बचपन
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव में 23 जुलाई सन 1906 को हुआ था. उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी थे. उनके पिता ने अकाल की वजह से उत्तर प्रदेश को छोड़कर अलीराजपुर रियासत’ के ग्राम भावरा में पलायन किया था. चन्द्रशेखर जब बड़े हुए तो वह अपने माता–पिता को छोड़कर भाग गये और बनारस में अपने फूफा शिवविनायक मिश्र के पास आकर रहने लगे. उनके साथ रहते हुए उन्होंने संस्कृत विद्यापीठ’ में संस्कृत सीखी.
चन्द्रशेखर ने बचपन में ही स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा ले लिया था. गांधीजी के “असहयोग आंदोलन” के दौरान उन्होंने विदेशी सामानों का बहिष्कार किया था. इसी असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें पहली बार पंद्रह वर्ष की आयु में सजा मिली. उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त पकड़ा गया और जब मजिस्ट्रेट ने उसका नाम पूछा, उन्होंने कहा “आजाद”. तुम्हारे पिता का क्या नाम है?” “मेरे पिता का नाम स्वाधीन है.” “तुम्हारा घर कहाँ पर है?” “मेरा घर जेलखाना है.”
इस तरह के उत्तर से मजिस्ट्रेट इतने गुस्सा हुए कि उन्होंने बालक चन्द्रशेखर को पंद्रह बेतों की सजा दे दी. कहते हैं चन्द्रशेखर हर बेंत की मार के बाद “भारत माता की जय” का नारा लगाते थे. उनकी इस बहादुरी के बाद से ही उनका नाम चन्द्रशेखर “आजाद” पड़ गया.
सन् 1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गये. इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त, 1925 को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये. बाद में एक–एक करके सभी क्रान्तिकारी पकड़े गए; पर चन्द्रशेखर आज़ाद कभी भी पुलिस के हाथ में नहीं आए.
अंग्रेजों से छुपते छुपाते उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को और अधिक सक्रिय बनाने के लिए एक सुदृढ़ क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की. “हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना” नामक उनके संगठन में भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी भी जुड़े थे. धीरे धीरे चन्द्रशेखर आजाद ने उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब में भी अपनी पकड़ बना ली.
साइमान कमीशन के विरोध में जब पंजाब में जगह जगह लोगों ने प्रदर्शन किया तब पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बेरहमी से लाठियां बरसाईं. पंजाब के लोकप्रिय नेता लाला लाजपतराय को इतनी लाठियाँ लगीं की कुछ दिन के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और पार्टी के अन्य सदस्यों ने लाला जी पर लाठियाँ चलाने वाले पुलिस अधीक्षक सांडर्स को मृत्युदण्ड देने का निश्चय कर लिया.
17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और राजगुरु ने साडंर्स को मार डाला. चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किए. लेकिन बम विस्फोट के अहम क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया और सुखदेव, राजगुरु और भगतसिंह को फांसी दे दी गई. लेकिन फिर भी चन्द्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों को चकमा देकर जगह-जगह जाकर अपनी क्रांतिकारियों गतविधियों को अंजाम दिया.
लेकिन फिर 27 फ़रवरी, 1931 का वह दिन भी आया जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में देश के सबसे बड़े क्रांतिकारी को मार दिया गया. 27 फ़रवरी, 1931 के दिन चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे कि तभी वहां अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. चन्द्रशेखर आजाद ने सुखदेव को तो भगा दिया पर खुद अंग्रेजों का अकेले ही सामना करते रहे. अंत में जब अंग्रेजों की एक गोली उनकी जांघ में लगी तो अपनी बंदूक में बची एक गोली को उन्होंने खुद ही मार ली और अंग्रेजों के हाथों मरने की बजाय खुद ही आत्महत्या कर ली. कहते हैं मौत के बाद अंग्रेजी अफसर और पुलिसवाले चन्द्रशेखर आजाद की लाश के पास जाने से भी डर रहे थे.
चंद्रशेखर आज़ाद को वेष बदलने में बहुत माहिर माना जाता था. वह रुसी क्रांतिकारियों की कहानी से बहुत प्रेरित थे. चन्द्रशेखर आजाद की वीरता की कहानियां कई हैं जो आज भी युवाओं में देशप्रेम की लहर पैदा कर देती हैं. देश को अपने इस सच्चे वीर स्वतंत्रता सेनानी पर हमेशा गर्व रहेगा.
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