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गुरू हमारे जीवन में भगवान के समान होता है. गुरूओं की महिमा के बारे में भारत के लगभग हर धर्म और संप्रदाय में कुछ ना कुछ देखने को मिलेगा जो इसकी संस्कृति का एक हिस्सा है. इसी संस्कृति को कुछ लोगों ने पर्व त्यौहार के माध्यम से संजो कर रखा है. ऐसा ही एक पर्व है गुरू नानक जयंती.
गुरू नानक देव जी ने एक ऐसे विकट समय में जन्म लिया जब भारत में कोई केंद्रीय संगठित शक्ति नहीं थी. विदेशी आक्रमणकारी देशवासियों का मान मर्दन कर देश को लूटने में लगे थे. धर्म के नाम पर अंधविश्वास और कर्मकांड का बोलबाला था.
गुरू नानक सिखों के प्रथम गुरू (आदि गुरू ) हैं. गुरू नानक को लोग बाबा नानक और नानकशाह नामों से जानते हैं. गुरू नानक का जन्म आधुनिक पाकिस्तान में लाहौर के पास तलवंडी में 15 अप्रैल, 1469 को एक हिन्दू परिवार में हुआ जिसे अब ननकाना साहब कहा जाता है.
बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे. पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा. 7-8 साल की उम्र में स्कूल छूट गया और सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे. 16 वर्ष की आयु में इनका विवाह हुआ. इनके पुत्रों के नाम श्रीचंद और लक्ष्मीचंद थे.
गुरू नानक देव जी एक महान क्रान्तिकारी, समाज सुधारक और राष्ट्रवादी गुरू थे. गुरू नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु – सभी के गुण समेटे हुए थे. नानक सर्वेश्वरवादी थे. मूर्तिपूजा को उन्होंने निरर्थक माना. रूढ़ियों और कुसंस्कारों के विरोध में वे सदैव तीखे रहे.
धर्म, समाज एवं देश की अधोगति को उन्होंने अनुभव किया. निरंतर छिन्न-भिन्न होते जा रहे सामाजिक ढांचे को अपने हृदयस्पर्शी उपदेशों से उन्होंने पुन: एकता के सूत्र में बांध दिया. उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया कि सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं. ईश्वर सबका साझा पिता है. फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंच-नीच कैसे हो सकते हैं.
उल्लेखनीय बात यह है कि गुरू जी ने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की. उन्होंने लंगर की परंपरा चलाई जहां कथित अछूत लोग जिनके सामीप्य से कथित उच्च जाति के लोग बचने की कोशिश करते थे, उन्हीं ऊंच जाति वालों के साथ बैठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे. आज भी सभी गुरू द्वारों में गुरू जी द्वारा शुरू की गई यह लंगर परंपरा कायम है. लंगर में बिना किसी भेदभाव के संगत सेवा करती है.
जीवन भर देश विदेश की यात्रा करने के बाद गुरू नानक अपने जीवन के अंतिम चरण में अपने परिवार के साथ करतारपुर बस गए थे. गुरू नानक ने 25 सितंबर, 1539 को अपना शरीर त्यागा. जनश्रुति है कि नानक के निधन के बाद उनकी अस्थियों की जगह मात्र फूल मिले थे. इन फूलों का हिन्दू और मुसलमान अनुयायियों ने अपनी अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुसार अंतिम संस्कार किया.
धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड, अंधविश्वास और कर्मकाण्डों का गुरू जी ने सख्त विरोध किया. आधुनिक समय में भी गुरूनानक देव जी के उपदेश उतने ही प्रासंगिक हैं. हमें समाज में फैले वैमनस्य, कुरीतियों आडम्बरों के विरुद्ध तो संघर्ष करना ही है साथ ही साम्प्रदायिकता, जातिवाद के विष से सचेत रहकर हर हालत में आपसी एकता, भाई-बंधुत्व भी बनाए रखना है.
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