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हमारा अभिमान है हिन्दी, भारत की शान है हिन्दी
जब एक बच्चा जन्म लेता है तो वह मां के पेट से ही बोली सीखकर नहीं आता. उसे भाषा का पहला ज्ञान अपने माता-पिता द्वारा बोले गए प्यार भरे शब्दों से ही होता है. भारत में अधिकतर बच्चे सर्वप्रथम हिन्दी में ही अपनी मां के प्यार भरे बोलों को सुनते हैं. हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा है. यह भाषा है हमारे सम्मान, स्वाभिमान और गर्व की. हिन्दी ने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलाई है.
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Hindi Diwas and Its Importance
हिन्दी हिन्दुस्तान को बांधती है. कभी गांधीजी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था तो इसी हिन्दी कीखड़ी बोली को अमीर खुसरो ने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने का माध्यम भी बनाया. लेकिन यह किसी दुर्भाग्य से कम नहीं कि जिस हिन्दी को हजारों लेखकों ने अपनी कर्मभूमि बनाया, जिसे कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी देश की शान बताया उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि सिर्फ राजभाषा की ही उपाधि दी गई. कुछ तथाकथित राष्ट्रवादियों की वजह से हिन्दी को आज उसका वह सम्मान नहीं मिल सका जिसकी उसे जरूरत थी.
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संविधान ने 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किया था. भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1) में यह वर्णित है कि “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय होगा.
इसके बाद साल 1953 में हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.
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लेकिन क्या हिन्दी को सिर्फ राजभाषा तक ही सीमित रखना उचित है? आखिर क्या जनमानस की इस भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने का हक नहीं है?
गांधी जी भी चाहते थी हिन्दी बने राष्ट्रभाषा
जिस हिन्दी को संविधान में सिर्फ राजभाषा का दर्जा प्राप्त है उसे कभी गांधी जी ने खुद राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी. सन 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था की हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. लेकिन आजादी के बाद ना गांधीजी रहे ना उनका सपना. सत्ता में बैठे और भाषा-जाति के नाम पर राजनीति करने वालों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनने दिया.
पहली बार सही मायनों में हिन्दी की खड़ी बोली का इस्तेमाल अमीर खुसरों की रचनाओं में देखने को मिलता है. अमीर खुसरो ने हिन्दी को अपनी मातृभाषा कहा था.
इसके बाद हिन्दी का प्रसार मुगलों के साम्राज्य में ही हुआ. इसके अलावा खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार में संत संप्रदायों का भी विशेष योगदान रहा जिन्होंने इस जनमानस की बोली की क्षमता और ताकत को समझते हुए अपने ज्ञान को इसी भाषा में देना सही समझा.
भारतीय पुनर्जागरण के समय भी श्रीराजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान नेताओं ने हिन्दी की खड़ी बोली का महत्व समझते हुए इसका प्रसार किया और अपने अधिकतर कार्यों को इसी भाषा में पूरा किया. हिन्दी के लिए पिछली सदी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है. इस सदी में हिन्दी गद्य का न केवल विकास हुआ, वरन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उसे मानक रूप प्रदान किया. खड़ी बोली को और भी प्रसार दिया महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” और सुमित्रानंदन पंत जैसे रचनाकारों ने.
आजादी की लड़ाई में हिन्दी ने विशेष भूमिका निभाई. जहां एक ओर रविन्द्रनाथ टैगोर ने बांग्ला भाषा का ज्ञाता होते हुए भी हिन्दी को ही जनमानस की भाषा बताया तो वहीं देश के क्रांतिकारियों ने जनमानस से संपर्क साधने के लिए इसी भाषा का प्रयोग किया.
Hindi Diwas Quotes-अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी |
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी | |
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई |हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखी ना जाई | |
हिन्दी विरोध के जनक
लेकिन जब भारत आजाद हुआ तब इसे कई गुटों ने राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया जिसमें प्रमुख थे द्रविदर कझगम (Dravidar Kazhagam), पेरियार (Periyar), और डीएमके. हिन्दी के विरोध में इन लोगों ने तमिलनाडु और अन्य दक्षिणी राज्यों में आंदोलन चलाए. हिन्दी के विरोध में कई लोगों ने बकायदा 13 अक्टूबर 1957 को “हिन्दी विरोध दिवस”(Anti-Hindi Day) के रूप में मनाया.
पर कुछ नेता ऐसे भी थे जो हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने के हिमायती थे. लाल बहादुर शास्त्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोरजी देसाई जैसे नेता चाहते थे कि हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त हो पर राजनीति की बिसात पर उनकी चाह दबी रह गई. उस समय तमिलनाडु, मद्रास, केरल और अन्य जगह हिन्दी के विरुद्ध फैल रहे आंदोलन दंगों की सूरत लेने पर आमादा थे इसलिए जब पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हिन्दी को अंग्रेजी के साथ ही चलाते रहने का फैसला किया.
जब 1949 में पहली बार हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण हिन्दी प्रसार सभा का गठन भी कराया ताकि 15 सालों के कार्यकाल में वह हिन्दी को दक्षिण भारत में भी लोकप्रिय और आम बोलचाल की भाषा बनाए लेकिन ऐसा हो नहीं सका. 1949 में जब हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था तक तय किया गया था कि 26 जनवरी, 1965 से सिर्फ हिन्दी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी.
लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों के विरोध के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हे यह आश्वासन दिया कि जब तक सभी राज्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे अंग्रेजी हिन्दी के साथ राजभाषा बनी रहेगी. इसका परिणाम यह निकला कि आज भी हिन्दी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है.
जाति और भाषा के नाम पर राजनीति करने वाले चन्द राजनेताओं की वजह से देश का सम्मान बनने वाली भाषा सिर्फ राजभाषा तक ही सीमित रह गई. बची-खुची कसर आज के बाजारीकरण ने पूरी कर दी जिस पर अंग्रेजी की पकड़ है. आज हिन्दी जानने और बोलने वाले को बाजार में एक गंवार के रूप में देखा जाता है. जब आप किसी बड़े होटल या बिजनेस क्लास के लोगों के बीच खड़े होकर गर्व से अपनी मातृभाषा का प्रयोग कर रहे होते हैं तो उनके दिमाग में आपकी छवि एक गंवार की बनती है.
उपरोक्त सभी बातें जहां हिन्दी के गौरवपूर्ण इतिहास पर प्रकाश डालती हैं तो वहीं हिन्दी की बर्बादी के मुख्य कारणों को भी समान रूप से उभारती हैं. लेकिन ऐसा नही हैं कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल ही नहीं सकता. जानकार मानते हैं कि अगर आज भी पूरा हिन्दुस्तान एक होकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए राजी हो जाए तो संविधान में उसे यह स्थान मिल सकता है. तो चलिए आज एक लहर की शुरुआत करें अपनी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए. जय हिन्द जय हिंदी.
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