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किसी भी राष्ट्र का इतिहास, उसके वर्तमान और भविष्य की नींव होता है. देश का इतिहास जितना गौरवमयी होगा, वैश्विक स्तर पर उसका स्थान उतना ही ऊंचा माना जाएगा. यूं तो बीता हुआ कल कभी वापस नहीं आता लेकिन उस काल में बनीं इमारतें और लिखे गए साहित्य उन्हें हमेशा सजीव बनाए रखते हैं. यही वजह है कि ऐसी वर्षों पुरानी या यूं कहें कई सदियों पुरानी ऐतिहासिक इमारतें, जो संबंधित राष्ट्र के वर्षों पुराने इतिहास की गौरव गाथा कहती हैं, उनके संरक्षण का पूरा-पूरा प्रयास किया जाता है. भारत में भी ऐसे कई ऐतिहासिक मकबरें, मस्जिद, मंदिर और अन्य इमारतें हैं जो स्वयं हमारे विशाल और सम्मानजनक इतिहास की कहानी कहती हैं. लेकिन समय के साथ-साथ इन इमारतों और उनमें रखे गए साहित्य को बहुत नुकसान पहुंचा है. हमने भी परवाह किए बगैर उन अनमोल धरोहरों को मनमाने ढंग से खंडित किया है.
लेकिन यह भी सत्य है कि वक्त रहते हमने अपनी भूल को पहचान लिया और अपनी विरासत को संभालने की दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया. पुरानी हो चुकी जर्जर इमारतों की मरम्मत की जाने लगी, उजाड़ भवनों और महलों को पर्यटन स्थल बना उनकी चमक को बिखेरा गया, किताबों और स्मृति चिह्नों को संग्रहालय में जगह दी गई. परंतु विरासत को संभालकर रखना इतना आसान नहीं है. इसीलिए यूनेस्को (UNESCO) द्वारा हर वर्ष विश्व विरासत दिवस मनाया जाता है जिसका स्पष्ट उद्देश्य इन इमारतों और उनमें रखी गई धरोहरों की देखभाल करना है.
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विश्व विरासत दिवस का इतिहास
इतिहास में दर्ज पुरानी यादों के प्रमाण के तौर वस्तुओं की अहमियत को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को (UNESCO) ने वर्ष 1983 से हर साल 18 अप्रैल को विश्व विरासत दिवस मनाने की शुरुआत की थी. इससे पहले हर साल 18 अप्रैल को विश्व स्मारक और पुरातत्व स्थल दिवस के रुप में मनाया जाता था. लेकिन यूनेस्को ने हमारे पूर्वजों की दी हुई विरासत को अनमोल मानते हुए इस दिवस को विश्व विरासत दिवस में बदल दिया.
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