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आज दुनिया में जीने की जंग मची हुई है. ताकत और पैसे के बल पर इंसान इंसान पर ही विजय पाने को अमादा है. हालात तो ऐसे हैं कि अगर इंसान पर कोई ऊपरी नियंत्रण ना हो तो वह खुद को बड़ा दिखाने के लिए मरने मारने को तैयार है. जगह जगह हो रही हिंसा इस बात का सबूत है कि मानवता आज खतरे में है. अगर आज दुनिया में अमीरों और ताकतवरों के बीच आम जनता सुरक्षित ढंग से रह पाती है तो उसकी वजह है सबको मिलने वाला तथाकथित मानवाधिकार. यूं तो यह मानवाधिकार सबके लिए समान है लेकिन इसका फायदा उसे ही मिलता है जिसे या तो इसकी जानकारी हो या कोई संसाधन.
अकसर कहा जाता है कि गरीबों का कोई मानवाधिकार नहीं होता. सुनने में तो यह गलत लगता है क्यूंकि हर स्वतंत्र राष्ट्र के संविधान में जीने का अधिकार यानि व्यक्ति के मूल अधिकार के बारे में प्रावधान है. इसके बावजूद हमें दैनिक जीवन में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां मानवाधिकार मात्र मजाक लगते हैं. एक चोर को सरेआम बाजार में पीटा जाता है. क्यूंकि वह चोर है इसलिए सब उसकी इतनी धुलाई करते हैं कि वह मर जाता है. जबकि अगर उसे कानूनी रूप से सजा दी जाती तो दंड काफी कम होता पर वह गरीब था, चोरी करते हुए पकड़ा गया और जनता ने उसे बलि का बकरा समझ उसकी बलि दे दी. ऐसी घटनाएं विश्व के कई हिस्सों में आम बात हैं.
लेकिन कभी कभी मानवाधिकार मजाक भी लगते हैं. क्या किसी ऐसे हत्यारे या आतंकवादी का कोई मानवाधिकार हो सकता है जो हजारों मासूमों की जिंदगी तबाह करने का दोषी हो और अगर ऐसे आतंकवादी का मानवाधिकार है तो क्या उन लोगों का मानवाधिकार मजाक है जो इन आतंकवादियों का शिकार बनते हैं.
जहां एक तरफ ग्वांतानामो जेल, अबू गरीब जेल जैसे कांड हृदय में मानवाधिकारों की दुहाई देते हैं वहीं जब अबु सलेम, अफजल गुरू जैसे हत्यारे और आतंकियों के मानवाधिकार की बात की जाती है तो यह निरर्थक लगती है. यहां विरोधाभास तो है ही लेकिन कहीं न कहीं मानव का हित साधना ही परम उद्देश्य है. हम सभी चाहते हैं कि बेशक कोई दोषी न सजा पा सके लेकिन किसी निर्दोष को भी तो बलि का बकरा न बनाया जाए.
विश्व में मानवाधिकार के महत्व को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में मानवाधिकार दिवस की शुरुआत की थी. उसने 1948 में सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा स्वीकार की थी और 1950 से महासभा ने सभी देशों को इसकी शुरुआत के लिए आमंत्रित किया था. संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को मानवाधिकारों की रक्षा और उसे बढ़ावा देने के लिए तय किया. लेकिन हमारे देश में मानवाधिकार कानून को अमल में लाने के लिए काफी लंबा समय लग गया. भारत में 26 सिंतबर, 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में लाया गया है.
अगर भारत में मानवाधिकारों की बात की जाए तो यह साफ है कि यहां आज भी एक खास तबके के लोगों को मानवाधिकार पैसों की हैसियत देखकर ही मिलती है. यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में जहां साक्षरता का स्तर थोड़ा कम है वहां मानवाधिकारों का हनन आम बात है. इन इलाकों में तो कई बार बेकसूरों को पुलिस और प्रशासन के लोग सिर्फ अपना गुस्सा शांत करने के लिए बेरहमी से मार देते हैं और फिर झूठा केस लगा उन्हें फंसा देते हैं. लेकिन इसके विपरीत शहरों में जहां लोग साक्षर हैं वहां लोग इसका गलत इस्तेमाल भी करते हैं. आज के युवा मानवाधिकार के नाम पर पार्क, गार्डन और गलियों आदि में अश्लीलता फैलाते दिखते हैं.
जहां तक अपराधियों की बात है तब तो सब सही है क्योंकि एक बलात्कारी, आतंकवादी या हत्यारे का कोई मानवाधिकार तो होना ही नहीं चाहिए लेकिन इन्हीं अपराधियों के साये में जब कोई निर्दोष हत्थे चढ़ जाता है या प्रशासन सच उगलवाने के लिए गैरकानूनी रूप से किसी को शारीरिक या मानसिक यातना देता है तब समझ में आता है मानवाधिकार कितना जरूरी है.
मानवाधिकार एक ऐसा विषय है जो सभी सामाजिक विषयों में सबसे गंभीर है जिसे हम एक तरफा होकर नहीं सोच सकते. पर अपने राजनीतिक या अन्य बुरे मंसूबों को सफल बनाने के लिए मानवाधिकारों का सहारा लेना बिलकुल गलत है.
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