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आज विश्व के सामने कई मुसीबतें मुंह खोले खड़ी हैं. इंसानों की जरा-सी लापरवाही किसी भी पल विकराल मुसीबतों को दावत दे सकती है. पर्यावरण संकट, प्रदूषण, जनसंख्या, बेरोजगारी, बीमारी, अकाल, प्राकृतिक आपदाओं से पूरा विश्व घिरा हुआ है. इन सब मुसीबतों से अगर विश्व को कोई चीज अब तक बचाए हुए है तो वह है इंसानों की सूझबूझ और तकनीक. सूझबूझ और तकनीक को बिना शिक्षा के प्राप्त करना कितना मुश्किल होता है यह सब जानते हैं. आज तकनीक और विकास के इस दौर में शिक्षा ही मनुष्य की सबसे बड़ी सहयोगी है. शिक्षा एक ऐसा धन है जो मनुष्य के साथ हमेशा रहती है, जो ना बांटने से कम होती है और ना ही इसे कोई चुरा सकता है.
शिक्षा एक चाय वाले को देश का आईएएस ऑफिसर बना देती है जो आगे चलकर देश के विकास में अहम योगदान देता है. शिक्षा के महत्व का अगर बखान किया जाए तो हो सकता है एक आर्टिकल भी कम पड़ जाए. शिक्षा के महत्व को समझते हुए ही विश्व का हर देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए सभी तरह के तिकड़म अपनाता है. भारत हो या अमेरिका सभी अपनी शिक्षा व्यवस्था को लेकर हमेशा सजग रहते हैं. लेकिन इसके बावजूद भी विश्व में साक्षरता दर 84% ही है यानि हर 100 में से 16 लोग अनपढ़ और निरक्षर हैं. भारत के संदर्भ में औसत साक्षरता दर और भी कम यानि 74% ही है. हालांकि नेपाल, पाकिस्तान जैसे हमारे पड़ोसी देशों में हालत हमसे भी खराब है पर विश्व में चीन जैसा भी देश है जिसके यहां साक्षरता दर 93.3% है.
विश्व साक्षरता दिवस : एक झलक
कम साक्षरता होने से किसी देश को कितना नुकसान उठाना पड़ता है इसका सबूत वहां की विकास दर से ही पता चल जाता है. विश्व में साक्षरता के महत्व को ध्यान में रखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र के शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने 17 नवंबर, 1965 को आठ सितंबर का दिन विश्व साक्षरता दिवस के लिए निर्धारित किया था. 1966 में पहला विश्व साक्षरता दिवस मनाया गया था और तब से हर साल इसे मनाए जाने की परंपरा जारी है. संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक समुदाय को साक्षरता के प्रति जागरूक करने के लिए इसकी शुरुआत की थी. प्रत्येक वर्ष एक नए उद्देश्य के साथ विश्व साक्षरता दिवस मनाया जाता है.
साक्षरता का अर्थ
साक्षरता सिर्फ किताबी शिक्षा प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं होती बल्कि साक्षरता का तात्पर्य लोगों में उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता लाकर सामाजिक विकास का आधार बनाना है. साक्षरता गरीबी उन्मूलन, लिंग अनुपात सुधारने, भ्रष्टाचार और आतंकवाद से निपटने में सहायक और समर्थ है. आज विश्व में साक्षरता दर सुधरी जरूर है फिर भी शत-प्रतिशत से यह कोसों दूर है.
भारत में साक्षरता
भारत एक प्रगतिशील देश है. यहां आजादी के समय से ही देश के नेताओं ने साक्षरता बढ़ाने के लिए कई कार्य किए और कानून बनाए पर जितना सुधार कागजों में दिखा उतना असल में नहीं हो पाया. केरल को छोड़ दिया जाए तो देश के अन्य शहरों की हालत औसत है जिसमें से बिहार और उत्तर प्रदेश में तो साक्षरता दर 70 फीसदी से भी कम ही है. स्वतंत्रता के समय वर्ष 1947 में देश की केवल 12 प्रतिशत आबादी ही साक्षर थी. बाद में वर्ष 2007 तक यह प्रतिशत बढ़कर 68 हो गया और 2011 में यह बढ़कर 74% हो गया लेकिन फिर भी यह विश्व के 84% से बहुत कम है. 2001 की जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत साक्षरता दर के साथ ही देश में 29 करोड़ 60 लाख निरक्षर हैं, जो आजादी के समय की 27 करोड़ की जनसंख्या के आसपास हैं.
सरकार द्वारा साक्षरता को बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील योजना, प्रौढ़ शिक्षा योजना, राजीव गांधी साक्षरता मिशन आदि न जानें कितने अभियान चलाये गए, मगर सफलता आशा के अनुरूप नहीं मिली. इनमें से मिड डे मील ही एक ऐसी योजना है जिसने देश में साक्षरता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई. इसकी शुरूआत तमिलनाडु से हुई जहां 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन ने 15 साल से कम उम्र के स्कूली बच्चों को प्रति दिन निःशुल्क भोजन देने की योजना शुरू की थी.
इसके फलस्वरूप राज्य में साक्षरता 1981 के 54.4 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 73.4 प्रतिशत हो गई. इसके बाद 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को सरकारी सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में निःशुल्क भोजन देने की व्यवस्था करने का आदेश दिया था.
इसके अलावा देश में 1998 में 15 से 35 आयु वर्ग के लोगों के लिए ‘राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ और 2001 में ‘सर्व शिक्षा अभियान’ शुरू किया गया. इसमें वर्ष 2010 तक छह से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों की आठ साल की शिक्षा पूरी कराने का लक्ष्य था.
बाद में संसद ने चार अगस्त, 2009 को बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को स्वीकृति दे दी. एक अप्रैल, 2010 से लागू हुए इस कानून के तहत छह से 14 आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देना हर राज्य की जिम्मेदारी होगी और हर बच्चे का मूल अधिकार होगा. इस कानून को साक्षरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है.
लेकिन इन सब के बावजूद “दिल्ली अभी दूर” ही दिख रही है. देश के बच्चे आज भी स्कूलों की बजाय चाय या कारखाने में देखे जाते हैं. देश में शिक्षा का कानून तो लागू कर दिया गया है पर उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों जहां गरीबी अधिक है वहां इसके सफल होने में काफी मुश्किलें आ सकती हैं.
देश में कम साक्षरता दर का एक कारण शिक्षा प्राप्त लोगों का भी बेरोजगार होना है. एक गरीब आदमी जब एक साक्षर आदमी को नौकरी की तलाश में भटकते हुए देखता है तो वह सोचता है कि इससे बढ़िया तो मैं हूं जो बिना पढ़े कम से कम काम तो कर रहा हूं और वह अपनी इसी सोच के साथ अपने बच्चों को भी शिक्षा की जगह काम करना सिखाता है. हमारे यहां की शिक्षा व्यवस्था में प्रयोगवादी सोच की कमी है. यहां थ्योरी तो बहुत ही बढ़िया ढंग से पढ़ा दी जाती है पर उसे असल जिंदगी में कैसे अमल लाया जाए यह सिखाने में चूक हो जाती है. जो बच्चे इंजीनियरिंग या कोई कोर्स आदि कर लेते हैं वह तो सफल हो जाते हैं पर जिसने बी.ए. आदि की डिग्री ली हो उसके लिए राहें कठिन होती हैं. देश की सरकार को समझना होगा कि सिर्फ साक्षर बनाने से लोगों का पेट नहीं भरेगा बल्कि शिक्षा के साथ कुछ ऐसा भी सिखाना होगा जिससे बच्चे आगे जाकर अपना पेट पाल सकें.
आज विश्व आगे बढ़ता जा रहा है और अगर भारत को भी प्रगति की राह पर कदम से कदम मिलाकर चलना है तो साक्षरता दर में वृद्धि करनी ही होगी.
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