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जीवित्पुत्रिका व्रत : पुत्र के लिए रखा जाने वाला व्रत

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भारतीय संस्कृति अपने पर्व त्यौहारों की वजह से ही इतनी फली-फूली लगती है. यहां हर पर्व और त्यौहार का कोई ना कोई महत्व होता ही है. कई ऐसे भी पर्व हैं जो हमारी सामाजिक और पारिवारिक संरचना को मजबूती देते हैं जैसे जीवित्पुत्रिका व्रत, करवा चौथ आदि. इसमें से ही एक है जीवित्पुत्रिका व्रत यानि जीवित पुत्र के लिए रखा जाने वाला व्रत. यह व्रत वह सभी सौभाग्यवती स्त्रियां रखती हैं जिनको पुत्र होते हैं. और साथ ही जिनके पुत्र नहीं होते वह भी पुत्र कामना और बेटी की लंबी आयु के लिए यह व्रत रखती हैं.


आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी के दिन माताएं अपने पुत्रों की दीर्घायु, स्वास्थ्य और सम्पन्नता हेतु यह व्रत करती हैं. इसे ग्रामीण इलाकों में “जीउतिया” के नाम से जाना जाता है. मिथिलांचल तथा उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल में इस व्रत की बडी मान्यता है. माताएं इस व्रत को बडी श्रद्धा के साथ करती हैं.


जीवित्पुत्रिका व्रत जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है. संक्षेप में वह इस प्रकार है – गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बडे उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था. वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया. एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है. आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है. जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड बडे वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए. अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बडे आश्चर्य में पड गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.


आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं. कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है.


जीवित्पुत्रिका व्रत विधि

जीवित्पुत्रिका व्रत पुत्र की दीर्घायु के लिए निर्जला उपवास और पूजा अर्चना के साथ संपन्न होता है. इस बार जीवित्पुत्रिका व्रत 20 सितंबर, 2011 मंगलवार के दिन मनाया जाएगा और 21 सितंबर, बुधवार को व्रत का पारण संपन्न होगा.


परंपरा के अनुसार व्रती सोमवार यानि 19 सितंबर को सिर से स्नान कर दिवंगत महिला पूर्वजों को तेल, खल्ली व जल-दान करेंगी. रात में 1.49 बजे तक ओठगन होगा. यानी इससे पूर्व तक व्रती महिलाएं चूड़ा-दही खाएंगी. इसके बाद पानी भी नहीं ग्रहण करेंगी. मंगलवार को दोनों शाम निर्जला व्रत करेंगी. दिन में चिल्हो व सियारो की पूजा होगी और प्रसाद चढ़ाने के साथ व्रती कथा सुनेंगी. बुधवार को सूर्योदय के बाद वे उपवास तोड़ेंगी.


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