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एक वक्त था जब भारतीय जनता पार्टी में दो नेताओं का सबसे ज्यादा असर था. जिनमें से एक हैं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और दूसरे हैं भाजपा में लौह पुरुष के नाम से विख्यात लालकृष्ण आडवाणी. खराब सेहत और बढ़ती उम्र की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी तो राजनीति से लगभग दूर ही हो चुके हैं जबकि उम्र के 86वें साल में पहुंचने के बावजूद भी लालकृष्ण आडवाणी अपने आप को सक्रिय रखे हुए हैं. लेकिन बीते कुछ महीनों की अगर बात करें तो उनकी इस सक्रियता को दूसरे तो दूसरे, उनकी अपनी पार्टी के लोग भी तवज्जो नहीं दे रहे हैं. वह पार्टी में महाभारत के भीष्म पितामाह के समान बन चुके हैं जिनके पास अनुभव तो है लेकिन उस अनुभव का प्रयोग करने की ताकत नहीं.
हिंदू धर्म में नई चेतना का सूत्रपात करने वाले आक्रामक छवि वाले नेता लालकृष्ण आडवाणी की जो स्थिति आज है उसकी बुनियाद 2004, जब भारतीय जनता पार्टी अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में आम चुनाव हार गई थी, में ही रखी दी गई थी. हार के बाद अटल बिहारी बाजपेयी की ऐसी स्थिति नहीं थी की वह आगे भी चुनाव लड़ सकें इसलिए पार्टी का सारा कार्यभार आडवाणी के कंधों पर आ गया था. तब यह भी साफ हो गया था कि 2009 का चुनाव आडवाणी का नेतृत्व में ही लड़ा जाएंगे.
भविष्य के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद लिए आडवाणी अपनी उस पुरानी छवि को परिष्कृत करने की कोशिश में लग गए जिसके सहारे उन्होंने भाजपा की नींव रखी थी और इसकी शुरुआत उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से की. 2005 में आडवाणी पाकिस्तान की यात्रा पर गए और वहां उन्होंने जिन्ना को धर्म निरपेक्षता का प्रमाणपत्र दे दिया था. जिन्ना की प्रशंसा के जरिए वे एक राजनेता के रूप में अपनी छवि बदलना चाह रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर देश का प्रधानमंत्री बनना है तो सबसे पहले हिंदुत्व की सोच में बदलाव करना होगा. लेकिन उन्हें शायद यह अंदाजा भी नहीं था कि अपने इस बयान से वह खुद के लिए गढ्ढा खोद रहे हैं. जिन्ना की प्रशंसा पर भाजपा के भीतर आडवाणी की तीखी आलोचना हुई और उनके समर्थन में पार्टी के कैडर, कार्यकर्ता से लेकर संघ तक कोई भी आडवाणी के साथ नहीं था.
पार्टी में अपना कद गिरता देख आडवाणी ने न आव देखा न ताव अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और इतना कठोर कदम उठाने के बाद वह अपनी ओर बढ़ रही आलोचनाओं को दबाने में सफल हो गए. जिन्ना प्रकरण के बाद यह नहीं कहा जा सकता था कि आडवाणी का रसूख पार्टी के अंदर खत्म हो चुका है, उनकी ताकत तब भी बरकरार थी. वह पार्टी में एकमात्र ऐसे नेता थे जिनसे पार्टी काफी उम्मीदें रखती थी, इसलिए पार्टी और संघ उनकी पुरानी बातों को भुलाते हुए 2009 का आम चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ने का निश्चय किया लेकिन पार्टी को इस चुनाव में भी हार नसीब हुई.
यहां से भाजपा में आडवाणी के अप्रासंगिक होने का दौर शुरू हो चुका था. संघ और भाजपा के बड़े नेता उनसे उनसे किनारा करने लगे. पार्टी में जब भी कोई बड़ा निर्णय लेना होता था वहां आडवाणी को केवल सलाहकार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा और उनकी सलाह को माना जाए या नहीं यह निर्णय कार्यकारिणी पर छोड़ दिया जाता था. आडवाणी की स्थिति पार्टी में उस समय और ज्यादा खराब हो गई जब कार्यकर्ताओं ने उनकी जगह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हाल के दिनो में भाजपा के इस लौह पुरुष की सबसे ज्यादा फजीहत हुई है.
उन्होंने कई मौकों पर एक हठी व्यक्ति की तरह पार्टी के खिलाफ जाकर आवाज उठाई लेकिन अप्रासंगिक होने की वजह से यह आवाज भी बेअसर साबित हुई. भाजपा को गढ़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की स्थिति अब एक उपेक्षित राजनेता की हो चुकी है. अब तो ऐसा लगता है जैसे पूरी पार्टी एक तरफ है और बूढ़ा नायक (आडवाणी) एक तरफ.
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