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पूछते हैं वो कि ‘गालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
विरोध करो या अपनाओ, पर उन्हें छोड़ नहीं सकते. ऐसे व्यक्तित्व थे उर्दू के महान ज्ञाता और प्रख्यात कवि मिर्जा असदउल्ला बेग खान अर्थात मिर्जा गालिब. उर्दू के सबसे मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने मुगल शासक बहादुरशाह जाफर के काल में हुए 1857 का गदर बहुत ही करीबी से देखा. अव्यवस्था और निराशा के उस जमाने में गलिब अपना हृदयग्राही व्यक्तित्व, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आए. शुरू में तो लोगों ने उनकी काल्पनिक शक्ति और मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेजी से बढ़ावा मिला कि शायरी की दुनिया का नजारा ही बदल गया.
मिर्जा गालिब की शिक्षा
उर्दू-काव्य के सबसे अधिक विवादास्पद कवि मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ. तर्सम खां के पुत्र कौकान बेग खां शाहआलम के शासन काल में, अपने बाप से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए. कौकान बेग गालिब के दादा थे. मात्र-भाषा तुर्की होने की वजह से उन्हें हिन्दुस्तानी में बड़ी कठिनाई हुई. वह चन्द टूटे-फूटे शब्द बोल पाते थे. वह कुछ दिन लाहौर रहे, फिर दिल्ली चले आए. क़ौकान बेग के चार बेटे और तीन बेटियां थीं. इतिहास में बेटों में अब्दुल्लाबेग और नसरुल्लाबेगका वर्णन मिलता है. अब्दुल्लाबेग ही गालिब के पिता थे. जब गालिब पांच साल के थे, तभी पिता का देहांत हो गया. पिता के बाद चाचा नसरुल्ला बेग खां ने गालिब का पालन-पोषण किया. नसरुल्ला बेग खां मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे.
गालिब की शिक्षा
गालिब को बचपन में ही पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी लेकिन दूसरी ओर उच्च कोटि के बुजुर्गों की सोहबत का लाभ मिला. शिक्षित मां ने गालिब घर पर ही शिक्षा दी जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी. फारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान ‘मौलवी मोहम्मद मोवज्जम’ से प्राप्त की. ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया. गालिब की ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि वह न केवल जहूरी जैसे फारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे. बल्कि फारसी में गजलें भी लिखने लगें.
कहा जाता है कि जिस वातावरण में गालिब का लालन पालन हुआ वहां से उन्हें शायर बनने की प्रेरणा मिली. जिस मुहल्ले में गालिब रहते थे, वह (गुलाबखाना) उस जमाने में फारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था. वहां मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वगैरा फारसी के एक-से-एक विद्वान वहां रहते थे. शायरी की शुरुआत उन्होंने 10 साल की उम्र में ही कर दी थी लेकिन 25 साल की उम्र तक आते-आते वह बड़े शायर बन चुके थे. अपने जीवन काल में ही गालिब एक लोकप्रिय शायर के रूप में विख्यात हुई. 19वीं और 20वीं शताब्दी में उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए. गालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक कशिश अंदाज पाया जाता है. जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है.
उर्दू को जिंदा रखा
जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई, उसमें मीर के साथ-साथ मिर्जा गालिब का सबसे अधिक योगदान था. मीर ने उर्दू को घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेमकी तल्लीनता और अनुभूति दी तो गालिब ने गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिए.
जिसने हिंदुस्तान में फारसी काव्य को उच्चता प्रदान की और उर्दू गद्य-पद्य को परम्परा की श्रृंखलाओं से मुक्त कर एक नए सांचे में ढाला उस महान शायर का निधन 15 फरवरी, 1869 को हुआ.
गालिब की शायरी
कर्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन
हजारों ख़्वाहिशें ऐसी, कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे
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