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वैसे तो प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है लेकिन इसकी घटती लोकप्रियता और प्रभाव के चलते इस सवाल उठाए जा रहे हैं. जिस प्रशासनिक और सामाजिक स्तर को मजबूत बनाने के लिए इसका निर्माण किया गया था उससे यह कहीं न कहीं भटकता जा रहा है. कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है. आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध भरी दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं.
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आज के समय की बात की जाए तो प्रेस की आजादी का लगातार दुरुपयोग हो रहा है. स्वयं भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू का मानना है कि प्रेस को स्वतंत्रता के नाम पर मनमर्जी का अधिकार नहीं है. अगर मीडिया की कार्यप्रणाली पिछड़ेपन की तरफ ले जाती है और लोगों की जीवन शैली को कमतर करती है, तो प्रेस की स्वतंत्रता को निश्चित तौर पर कुचल दिया जाना चाहिए. उनका मानना है कि प्रेस की आजादी से लोगों की जिंदगी के स्तर में सुधार होना चाहिए न की उनके द्वारा परोसी जाने वाली खबरों से लोगों में भ्रम और अंधविश्वास पैदा हो.
दिशाहीन हो रही पत्रकारिता ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के सरोकार और दायित्व को बदल दिया है. अब धन कमाने के नजरिये से पत्रकारिता को मनचाही दिशा दी जा रही है. इलेक्ट्रानिक मीडिया में विशेष रूप से आजादी के नाम पर जिस तरह भोण्डापन, घिनौनापन व डरावना स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है उससे कहीं न कहीं प्रेस में नैतिकता के मायने भी बदल रहे हैं.
तेजी से बढ़ते बाजारवाद के कारण आज प्रेस की स्वतंत्रता के मायने पूरी तरह से बदल गए हैं. बाजारवाद की अंधी दौड़ ने लेखकों और संपादकों के विवेक को बिलकुल ही खत्म कर दिया है और उसकी जगह एक ऐसे डर ने ले लिया है जिसका संबंध प्रतिस्पर्धा से है. असल में संपादकों के हाथ में कंटेंट की बागडोर होती है लेकिन मुश्किल यह है कि टीआरपी के दबाव के कारण कंटेंट पर उनकी कमान फिसलती जा रही है और उसकी जगह बाजार ने ले ली है. इसलिए आज के समय में यदि कहा जाता है कि चैनलों के लिए कंटेंट के मामले में नीचे गिरने की इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना न सिर्फ मुश्किल बल्कि नामुमकिन दिखने लगा है.
वैसे यह पाया गया है कि दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र भारत में मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश बढ़ता जा रहा है. मीडिया स्वतंत्रता सूचकांक के मुताबिक मीडिया की स्वतंत्रता के मसले पर भारत दुनिया भर में 131वें स्थान पर है. इस मामले में भारत अफ़्रीकी देश बरूंडी से नीचे और अंगोला से ठीक ऊपर है. 2009 में इस सूचकांक में भारत 105वें और 2010 में 122वें स्थान पर मौजूद था. भारत में इंटरनेट द्वारा अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिशें लगातार बढ़ रही हैं. सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता को देखते हुए सरकार इस पर प्रतिबंध लगाने की योजना बना रही है.
अगर आज सरकार मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए सोच-विचार कर रही है तो उसमें भी कहीं न कहीं मीडिया की घटती और सस्ती लोकप्रियता ही जिम्मेदार है जो बाजार के इशारों पर नाचती है.
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मीडिया की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता.
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