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पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय

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आज हम सभी अपने आप में ही जी रहे हैं. जो लोग दूसरों की सेवा और समाज सेवा करने का जोखिम उठाते भी हैं वह भी अपने मतलब के लिए ही यह कार्य करते हैं. आलम तो यह है आज बिना फायदे के कोई समाजसेवा भी नहीं करना पसंद करता. लेकिन यह सब आज के समय में होता है. इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाए तो कुछ ऐसे नायक भी आएंगे जिन्हें देखकर आपको लगेगा कि हां यही हैं असली लोकनायक, समाजसेवक और आदर्श शख्सियत. ऐसे ही एक व्यक्ति थे राजा राममोहन राय. आधुनिक भारत के निर्माता राजा राममोहन राय ऐसे बहुआयामी समाजसेवी थे जिन्होंने अकेले दम पर सदियों से रूढि़यों में जकड़े भारतीय समाज के सुधार के लिए विभिन्न क्षेत्रों में काम किया.


Raja_Ram_Mohan_Royराममोहन राय अपनी विलक्षण प्रतिभा से समाज में फैली कुरीतियों के परिष्कारक और ब्रह्म समाज के संस्थापक के रूप में निर्विवाद रूप से प्रतिष्ठित हैं. राजा राममोहन राय सिर्फ सती प्रथा का अंत कराने वाले महान समाज सुधारक ही नहीं, बल्कि एक महान दार्शनिक और विद्वान भी थे. वह जहां संस्कृत और हिंदी भाषा में दक्ष थे वहीं अंग्रेजी, ग्रीक, बांग्ला और फारसी भाषा में भी बेहद निपुण थे. उन्होंने वेदों और उपनिषदों को विश्व जनमानस तक पहुंचाने के लिए इनका बांग्ला हिंदी, फारसी और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया. इन भाषाओं में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना भी की.


राजा राममोहन राय का जीवन परिचय

राजा राममोहन राय का जन्म बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में 22 मई, 1772 को ब्राह्मण रमाकांत राय के घर हुआ था. बचपन से ही उन्हें भगवान पर भरोसा था लेकिन वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे. कम उम्र में ही वह साधु बनना चाहते थे लेकिन माता का प्रेम इस रास्ते में बाधा बना. परंपराओं में विश्वास करने वाले रमाकांत चाहते थे कि उनके बेटे को ऊंची तालीम मिले. इसके लिए कम उम्र में ही राममोहन राय को पटना भेज दिया गया. कुशाग्र बुद्धि के बालक ने उस समय के प्रसिद्ध अरबी एवं फारसी विद्वानों से शिक्षा ग्रहण की. बाद में उन्होंने अंग्रेजी का महत्व समझा और उसका अध्ययन शुरू किया. अंग्रेजी के अध्ययन से उन्हें यूरोप तथा फ्रांसीसी क्रांति की जानकारी मिली.


ram117 वर्ष की अल्पायु में ही वे मूर्ति पूजा विरोधी हो गए थे. मूर्ति पूजा के विरोधी राममोहन राय का इस मुद्दे पर पिता से मतभेद था और वह एक बार घर छोड़कर चले गए. लंबे-चौड़े शरीर के मालिक एवं आकर्षक व्यक्तित्व के धनी राममोहन राय पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल के पक्ष में नहीं थे. वह अपनी संस्कृति की अच्छाई को भी बनाए रखने के पक्षधर थे जबकि रूढि़वादी एवं जड़ रीति-रिवाजों के विरोध में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उस समय किसी हिंदू के लिए समुद्र पार करने या विदेश जाने की मनाही थी लेकिन राममोहन राय ने इस मान्यता को भी खारिज कर दिया. वह उन शुरूआती कुछ लोगों में थे जिन्होंने इसे दकियानूसी मान्यता की अनदेखी की और इंग्लैंड की यात्रा की. जब राममोहन राय लीवरपूल [इंग्लैंड] पहुंचे तो वहां के प्रमुख नागरिक उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे. उन्होंने फ्रांस की भी यात्रा की थी.


मौजूदा दौर में प्रेस की आजादी के लिए जोर-शोर से आवाज उठती रहती है लेकिन राममोहन राय ने 19वीं सदी में ही इस पर बल दिया और तत्कालीन शासन से टकराव मोल लिया. उनका मानना था कि समाचार पत्रों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए. सच्चाई सिर्फ इसलिए नहीं दबा देनी चाहिए कि वह सरकार को पसंद नहीं है.


अंग्रेजी राज में ऐसी आवाज उठाना हिम्मत की बात थी लेकिन उन्होंने यह भी बखूबी किया और अंतत: सफल रहे. उन्होंने मिरात-उल अखबार और संवाद कौमुदी जैसे पत्रों का प्रकाशन भी किया. वह अपने पत्रों में नियमित रूप से अपने विचार व्यक्त करते और विरोधियों का जवाब देते थे. लगन के पक्के राम मोहन ने अपनी भाभी को सती होते देखा था. इस दर्दनाक घटना ने उन पर ऐसा असर डाला कि उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को खत्म करने की ठान ली. उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंण्टिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके. सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम पंक्ति में आ गए. राजा राममोहन राय को मुग़ल सम्राट अकबर द्वितीय की ओर से ‘राजा’ की उपाधि दी गयी थी.


1831 से 1833 तक अपने इंग्लैंड प्रवास काल में राममोहन जी ने ब्रिटिश भारत की प्राशासनिक पद्धति में सुधार के लिए आन्दोलन किया. ब्रिटिश संसद के द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श लिए जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे.


राजा राममोहन राय ने स्त्रियों को शिक्षा और संपत्ति का उत्तराधिकार दिलाने के लिए भी आंदोलन चलाया. उन्हें अपने समाज सुधार आंदोलनों के दौरान कट्टरपंथियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने संकल्प में आगे बढ़ते गए. हिन्दू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण 1828 में उन्होंने ‘ब्रह्म समाज’ नामक एक नए प्रकार के समाज की स्थापना की.


ब्रह्म समाज तथा आत्मीय सभा के संस्थापक तथा आजीवन रूढि़वादी रिवाजों को दूर करने के लिए प्रयासरत राममोहन राय का 27 सितंबर, 1833 को ब्रिस्टल इंग्लैंड में निधन हो गया. जीवन भर समाज से संघर्ष करने वाले राममोहन राय भले ही इस दुनिया में नहीं रहे हों लेकिन जब भी आधुनिक भारत की चर्चा होगी उनका नाम सदैव बड़े सम्मान से लिया जाता रहेगा.


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