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कई बार इंसान अपनी जिंदगी में कुछ ऐसे फैसले लेता है जो जाने-अनजाने उसकी मौत का कारण बन जाता है. प्रधानमंत्री पद एक ऐसा जिम्मेदारी वाला पद है जिसकी गरिमा का ख्याल उस पद पर बैठने वाले व्यक्ति को होता है. इस पद पर बैठकर प्रधानमंत्री अपनी सेवा देते हुए कोई ऐसा कार्य या बयान नहीं देता जिससे किसी खास समुदाय या जाति की भावनाओं को ठेस पहुंचती हो. वह कोशिश करता है कि अपने कार्यों से समाज के हर वर्ग में संतुलन स्थापित करे. हालांकि कोई इसमें कामयाब रहता है तो कोई नाकाम. भारतीय इतिहास में राजीव गांधी का नाम एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में लिया जाता रहा है जो अपने सही फैसलों के बीच कुछ बड़े गलत फैसले लेने के लिए बदनाम हैं – अब वह चाहे 1984 के दंगे पर दिया गए बयान हो या फिर श्रीलंका में तमिल मुद्दे को सही से न समझने की बात.
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फिलहाल हम तमिल के मुद्दे पर फोकस कर रहे हैं. बात साठ और सत्तर के दशक की है जब लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) के नाम का तमिल संगठन अपनी मांगों (तमिल राष्ट्र – ‘ईलम’) के लिए हिंसा पर उतारू हो गया थे. इस संगठन का नेतृत्व तमिल युवा वेलुपिल्लई प्रभाकरन कर रहा था. तमिल का मुद्दा होने की वजह से पिछले कई सालों से श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण तमिलनाडु के लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे. इस कारण भारत पर तमिलों की मदद करने का भारी दबाव था. कहा जाता है कि तब भारत ने लिट्टे की मदद की थी.
उधर, अपनी मांगों को लेकर लिट्टे के बंदूकधारियों और श्रीलंकाई सैनिकों के बीच गृह युद्ध जारी था और इसमें हजारों लोग मारे जा चुके थे. श्रीलंका और भारत सरकार के बीच इसे रोके जाने को लेकर बातें भी चल रही थीं. 1987 में यह तय किया गया कि भारत और श्रीलंका के बीच एक शांति समझौता किया जाएगा, लेकिन प्रभाकरन ऐसा नहीं चाहता था. प्रभाकरन भी शांति समझौते का विरोध करते हुए ईलम की मांग पर भारत के कई नेताओं से मुलाकात कर रहा था. इसी मुलाकात में 28 जुलाई, 1987 को प्रभाकरन को राजीव गांधी से मिलने बुलाया गया. इस मुलाकात के बाद प्रभाकर ने प्रेस को बयान दिया और कहा, ‘प्रधानमंत्री तमिलों की समस्या समझते हैं और इस दिशा में काम कर रहे हैं. हम प्रधानमंत्री के इस रुख से संतुष्ट हैं’, लेकिन इसके अगले ही दिन राजीव गांधी श्रीलंका पहुंचे और राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए.
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लेकिन राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ यह शांति समझौता राजीव गांधी के लिए कितना घातक हो सकता था इसका अंदाजा शायद किसी को नहीं था. शांति समझौते की स्याही अभी सूखी नहीं थी कि श्रीलंका में अगले ही दिन एक श्रीलंकाई सैनिक ने उन पर बंदूक के बट से हमला कर दिया. यह घटना तब हुई जब हजारों लोगों के बीच श्रीलंकाई सैनिकों द्वारा राष्ट्रपति जयवर्धने के साथ राजीव गांधी को सलामी दी जा रही थी. हमले के समय राजीव गांधी खुद को संभालते हुए नीचे झुक गए जिस कारण उनके सिर पर चोट नहीं आई किंतु बंदूक का यह वार उनकी गर्दन और कंधे पर जाकर लगा. उस हमले के बाद राजीव लंबे समय तक अपना कंधा पूरी तरह नहीं उठा पाते थे. इस घटना की भारत में आलोचना तो की गई, लेकिन इसे गंभीरता से किसी ने नहीं लिया. आगे चलकर सत्ता परिवर्तन हुआ. 1989 में राजीव गांधी की जगह वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. आते ही उन्होंने श्रीलंका में भेजी गई इंडियन पीस कीपिंग फोर्स आईपीकेएफ को वापस बुलाने को फैसला किया जिसे शांति समझौते के अनुसार श्रीलंका में सैन्य दल के रूप में भेजा गया था. इस दौरान आईपीकेएफ ने लिट्टे को बहुत हद तक सीमित कर दिया था.
राजनीति उठापठक के बीच वीपी सिंह ज्यादा दिनों तक प्रधानमंत्री के पद पर नहीं रह सके. उधर अनुमान लगाया जा रहा था कि चुनाव के बाद एक बार फिर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे. यह सोच प्रभाकरन को लगने लगा कि यदि राजीव गांधी फिर से प्रधानमंत्री बने तो भारत-श्रीलंका शांति समझौते को लागू करवाना चाहेंगे. एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में भी राजीव गांधी ने अखंड श्रीलंका की बात कही थी. ईलम का सपना टूटता देख प्रभाकरन ने राजीव गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया था जिसे अमली जामा 21 मई, 1991 श्रीपेरंबदूर तमिलनाडु में पहना दिया गया.
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