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हिंदी भाषा के लिए लोहिया का संघर्ष

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images 1वह साठ का दशक था जब अंग्रेजी हटाओ आंदोलन अपनी चरम पर था जिसने भारतीय राजनीति में बड़ा बदलाव किया. उस समय सरकारी कार्यालयों में कामकाज के लिए अंग्रेजी की जगह पूर्ण रूप से भारतीय भाषाओं को अपनाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन किया जा रहा था और इस आंदोलन के सूत्रधार समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया थे.


राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को फैजाबाद में हुआ था. उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे. उनके पिताजी गाँधीजी के अनुयायी थे. जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे. इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ. पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए. लोहिया जी ने बनारस से इंटरमीडिएट और कोलकता से बीए (आनर्स) प्रथम श्रेणी में उत्‍तीर्ण करने के पश्‍चात उच्‍च शिक्षा के लिए लंदन के स्‍थान पर बर्लिन का चुनाव किया. उन्होंने मात्र तीन माह में जर्मन भाषा में धारा प्रवाह पारंगत होकर अपने प्रोफेसर जोम्‍बार्ट को चकित कर दिया.


भारत छोडो़ आंदोलन में  सक्रिय रूप से भाग लेने वाले लोहिया ने आजादी के बाद अंग्रेजी की वरीयता देख 1957 में अंग्रेजी हटाओ मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया. वैसे भारतीय संविधान जब लागू हुआ तब उसमें भी यह व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसके बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा लेकिन लोहिया ने समय सीमा पूरी होने से पहले आंदोलन छेड़ दिया था.


बहुआयामी  राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में लड़ा गया यह आंदोलन कुछ ही दिनों में पूरे देश में आग की लपटों की तरह फैल गया. सरकार भी लोहिया के आंदोलन के आगे झुकती हुई दिखाई दी. लेकिन इस दौरान दक्षिण भारत के राज्यों खासकर तमिलनाडु में आंदोलन का विरोध होने लगा. ऐसा इसलिए क्योंकि लोगों को लगने लगा कि अंग्रेजी हटाने की आड़ में उनके ऊपर हिंदी थोपे जाने की कोशिश हो रही है. इसका असर यह हुआ कि राज्य में अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके पार्टी ने हिंदी विरोधी आंदोलन को और तेज कर दिया.


आजादी के बाद भाषा के लिए लड़ी जाने वाली यह पहली लड़ाई थी जो दो क्षेत्रों को बांटती हुई दिखाई दी. दो भाषा की यह जंग धीरे-धीरे हिंसा का रूप लेने लगी. कई जगह से अंग्रेजी और हिंदी के नामोनिशान मिटाए जाने लगे. जन-धन की काफी हानि हुई थी, रेल गाड़िया जलाई गईं, पोस्ट ऑफिस फूंके गये थे. खबर यह भी आने लगी कि दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन में कई छात्रों ने आत्महत्या भी कर ली. आंदोलन को बढ़ता देख केंद्र सरकार ने 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित करवाया. इसके अनुसार 1965 के बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल राजकाज में किया जा सकता है.


लेकिन ऐसा नहीं है कि भाषा को लेकर संघर्ष समाप्त हो गया था. 1965 के बाद भी लगातार भाषा को लेकर विवाद सामने आते रहे. जहां राममनोहर लोहिया ने हिंदी भाषा को भारतीय समाज से जोड़ने की कोशिश की वहीं आज के क्षेत्रीय दल भाषा को अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.


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