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कहते हैं संत की ना कोई जात होती है ना कोई धर्म, संत तो बस भक्ति का साधक होता है. दया, शील, विनम्रता जैसे गुणों से ही उसकी पहचान होती है. संत तो उस बहती नदी के जल के समान है जो सभी को अपनी शीतलता से ठंडा कर देता है. भक्ति की राह पर संत कभी पीछे नहीं हटते और यही वजह है कि दुनिया उन्हें हमेशा याद रखती है. संतों के इन्हीं सभी गुणों से लबरेज और भक्ति के परिचायक संत तुकाराम भी थे. अपनी कविताओं के द्वारा तुकाराम ने अपने विठ्ठल की आराधना की और अपनी जिंदगी उनके नाम की.
संत कवि तुकाराम पुणे के देहू कस्बे के छोटे-से काराबोरी परिवार में 17वीं सदी में जन्मे थे. उन्होंने ही महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली. वे भगवान विट्ठल, यानी विष्णु के परम भक्त थे. उन्होंने स्थानीय भाषा में भगवान विट्ठल को समर्पित कई भक्ति गीतों की रचना की.
तुकाराम ने दो विवाह किए. पहली पत्नी थीं रखुमाबाई. अभावों से जूझते हुए वे पहले रोगग्रस्त हुईं, फिर उनका स्वर्गवास हो गया. दूसरी पत्नी थीं जीजाबाई. लोग उन्हें अवली भी कहते. जीजाबाई हरदम उलाहना देती रहती थीं. तुका की तीन संतानें हुईं संतू (महादेव), विठोबा और नारायण. सबसे छोटे विठोबा भी पिता की तरह भक्त ही थे.
ग्रंथ पाठ और कर्मकांड से कहीं दूर तुका प्रेम के जरिए आध्यात्मिकता की खोज को महत्व देते. उन्होंने अनगिनत अभंग लिखे. कविताओं के अंत में लिखा होता, तुका माने, यानी तुका ने कहा… उनकी राह पर चलकर वर्करी संप्रदाय बना, जिसका लक्ष्य था समाजसेवा और हरिसंकीर्तन मंडल. इसके अनुयायी सदैव प्रभु सुमिरन करते.
तुका ने कितने अभंग लिखे, इनका प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन मराठी भाषा में हजारों अभंग तो लोगों की जुबान पर ही हैं. पहला प्रकाशित रूप 1873 में सामने आया. इस संकलन में 4607 अभंग संकलित किए गए थे. आज संत तुकाराम तो हमारे बीच नही हैं लेकिन उनके लिखे गए गीत आज भी महाराष्ट्र में गाए जाते हैं. संत तुकाराम ने अकेले ही महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को फैलाने में अहम भूमिका निभाई.
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