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“श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल”
ये पंक्तियां सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को संबोधित करते हुए लिखी थीं. सरोजिनी नायडू को कविता लिखने का काफी शौक था. महज 13 वर्ष की आयु में ही 1300 पदों की ‘झील की रानी‘ नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर सरोजिनी नायडू ने अंग्रेजी भाषा पर अपनी पकड़ का उदाहरण दिया था. तब उनकी कविताएं स्वतंत्रता सेनानियों को काफी प्रेरित करती थीं.
शुरुआत में सरोजनी नायडू की कविताओं में कोई नयापन नहीं था. वह उसी तरह से लिखती थीं जैसे लोग अंग्रेजी साहित्य की कविताएं लिखा करते थे. एक बार उन्होंने अपनी कविताएं अंग्रेजी साहित्यकार एडमंड विलियम गोसे को दिखाईं. उन्होंने इसे गंभीरतापूर्वक पढ़ी भी, पर जब सरोजनी नायडू ने उनसे उनकी राय जाननी चाही तो गोसे ने कहा – “मेरे विचार से इन सारी कविताओं को रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहिए”.
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यह बात सरोजनी नायडू को बिलकुल ही पसंद नहीं आई और वह गंभीर हो गईं, तब गोसे बोले, क्योंकि तुम्हारी कविताएं अंग्रेजी साहित्य की कविताओं जैसी हैं. इनमें कोई नयापन नहीं है, जिससे कहा जा सके कि इसे भारतीय कवि या लेखक ने लिखा है. तुम्हारी रचनाएं तभी महान होंगी, जब तुम इन्हें भारतीय परिप्रेक्ष्य से लिखोगी. भारत के गांवों के दृश्य, भारतीय लोकजीवन की झलकियां और वहां की जिंदगी से उठाए गए उदाहरण तुम्हारी कविताओं को एक अलग ही विशिष्टता प्रदान करेंगे.
इस बात ने नायडू को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया था. पुराने ढर्रे से हटकर उन्होंने अपनी कविताओं में नया मोड़ दिया जिसे पढ़कर आज भी लोग शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते हैं. सरोजिनी नायडू का प्रथम कविता-संग्रह ‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ [The Golden Threshold](1905) में प्रकाशित हुआ जो आज भी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय है. उन्होंने ‘लंदन-टाइम्स’ और ‘द मेन्चैस्टर गार्जियन’ जैसे अखबारों में अपनी कविता-संग्रह की प्रशंसा युक्त समीक्षाएं भी लिखीं जिसे काफी सराहा गया.
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