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आदि काल से ही यह माना जाता रहा है कि घर में पिता एक वट वृक्ष के समान है जिसकी शीतल छांव में संपूर्ण परिवार खुशी से जीवन व्यतीत करता है. परिवार पर जो भी विपत्ति आए उसका वह डटकर मुकाबला करता है और इसकी भनक अपने बच्चों तक को भी नहीं लगने देता. ग्लैमर और चकाचौंध से भरपूर बॉलीवुड में भी आम हिंदुस्तानी सा दिखने वाला एक ऐसा अभिनेता था जिसने अपने परिवार की खुशियों के लिए पूरी जिंदगी लगा दी. यहां हम बात कर रहे हैं बहुआयामी व्यक्तित्व वाले सुनील दत्त (Sunil Dutt) की.
सुनील दत्त (Sunil Dutt) न केवल एक सफल अभिनेता रहे बल्कि एक पत्रकार, एक सामाजिक कार्यकर्ता तथा एक राजनीतिज्ञ के रूप में भी उन्होंने ख्याति प्राप्त की. अभिनेता के रूप में पर्दे पर उनकी उपस्थिति बेहद जीवंत होती थी. उनके अंदर एक भोलापन तथा आम हिंदुस्तानी झलक साफ देखी जा सकती थी. अपनी अभिनय क्षमता को लेकर वे बेहद व्यावहारिक थे. यही वजह रही कि उनके साथ काम करने वालों में बिमल रॉय से लेकर हृषिकेश मुखर्जी और बीआर चोपड़ा तक बड़े निर्देशक रहे. उनकी फिल्मों में सुजाता, मदर इंडिया, मुझे जीने दो, पड़ोसन और जख्मी ऐसी फिल्में हैं जिसे आज भी लोग बार-बार देखना चाहेंगे.
‘दत्त साहब’ के नाम से पहचाने जाने वाले सुनील दत्त (Sunil Dutt) का शुरुआती जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा. स्वतंत्रता-पूर्व के भारत के पंजाब राज्य के झेलम जिले के खुर्दी गांव में जन्में सुनील दत्त को भी विभाजन के समय लाखों लोगों की तरह भारत की ओर रुख करना पड़ा. मुंबई में रहते हुए सुनील दत्त (Sunil Dutt) को अपने शुरुआती दिन फुटपाथ पर बिताने पड़े थे तब वह फिल्मों में काम नहीं कर रहे थे. पैसे कमाने के लिए उन्होंने फिल्मों का रास्ता चुना जिसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली. वर्ष 1958 में हिंदी फिल्मों की मशहूर अदाकारा नरगिस से शादी करने के बाद सुनील दत्त ने फिल्मों के साथ परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया.
उन्होंने अपने बेटे संजय दत्त को सही शिक्षा देने और उन्हें मजबूत बनाने के लिए बोर्डिंग स्कूल भेजा ताकि वे पढ-लिखकर एक अच्छा इंसान बनें. वे एक अच्छे पिता की तरह हर हफ्ते अपने बेटे से मिलने के लिए स्कूल जाया करते थे. स्वयं सुनील दत्त (Sunil Dutt) का मानना है कि आदमी का पढ़ना लिखना इसलिए जरूरी नहीं कि वह यह जान जाए कि कौन सी चोटी सबसे ऊंची है या सबसे बड़ी नदी कौन सी है बल्कि पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इससे आप सीखते हैं कि जीवन के कठिन मोड़ों पर या जिदगी जब आपसे रूठी हुई हो तो आपको कैसे निर्णय लेने हैं.
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संजय दत्त पढ़ने में ठीक नहीं थे. उनका मन फिल्मों में काम करने का था. स्कूल से बाहर निकलने के बाद संजय दत्त गलत लोगों की संगत में पड़ गए थे. घर लौटने के बाद संजय का जल्द ही ऐसे दोस्तों के साथ उठना-बैठना शुरू हो गया जो शौकिया ड्रग्स लेते थे. चुटकी भर से शुरू हुआ यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा. नशे के कारण संजय की हालत खराब हो चुकी थी. अपने बेटे की हालत देख सुनील दत्त (Sunil Dutt) उन्हें अमरीका कैंडी अस्पताल के नशामुक्ति केंद्र ले गए. वहां से उन्हें टेक्सास के एक नशामुक्ति केंद्र भेज दिया गया. वहां उनका इलाज किया गया. उस समय भी पिता सुनील अपने बेटे संजय दत्त के साथ जुड़े रहे. जब उनका इलाज पूरा हुआ तो उन्हें भारत लाने के लिए वह स्वयं अमरीका गए. उनके वापस आने के बाद पत्नी नरगिस की मौत हो गई जिसके बाद सुनील दत्त अकेले पड़ गए. फिर भी उन्होंने परिवार पर पड़ रहे विपत्तियों का डट कर सामना किया.
सन 1989 से लेकर 1993 तक संजय दत्त ने एक के बाद एक हिट फिल्में दीं जिनमें थानेदार, साजन, सड़क और खलनायक शामिल थीं. लेकिन जब उनका नाम 1993 के मुंबई बम धमाकों में आया तब पिता सुनील दत्त ने ही जिम्मेदारी के साथ अपने बेटे को मॉरिशस से वापस बुलाया जहां मुंबई हवाई अड्डे पर ही उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया. उस समय सुनील दत्त ने अपने बेटे को बचाने के लिए हर किसी का दरवाजा खटखटाया. सुनील दत्त (Sunil Dutt) कांग्रेस के नेता थे लेकिन यह संजय दत्त ही थे जिसकी वजह से पिता दत्त साहब शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे के घर मातोश्री गुहार लगाने गए थे. उसके बाद ठाकरे ने मदद भी की थी, जिससे संजय दत्त को राहत मिली थी.
करोड़ो प्रशंसकों के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले सुनील दत्त अंत तक अपने परिवार की हर विपत्ति पर वट वृक्ष के समान खड़े रहे. 25 मई, 2005 को 74 वर्ष की आयु में मुंबई में सुनील दत्त (Sunil Dutt) ने अंतिम सांसें ली. हाल ही में उनके परिवार को एक बार फिर उनकी जरूरत तब महसूस हुई जब 1993 मुंबई बम ब्लास्ट के मामले में संजय दत्त ने खुद को टाडा कोर्ट के सामने सरेंडर किया.
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