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इंसान एक सामाजिक प्राणी माना जाता है. लेकिन इंसान की इस मुख्य विशेषता को तब चुनौती मिलती है जब अमीरी-गरीबी के भेदभाव की वजह से एक अमीर इंसान एक मरते हुए गरीब की मदद करने से कतराता है. समाज में फैले इस भेदभाव का एक बहुत बड़ा नुकसान उस समय नजर आता है जब समाज में इससे हमारी न्याय व्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ता है.
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सामाजिक न्याय की खतरनाक राह
समाज में हर तबका एक अलग महत्व रखता है. कई बार समाज की संरचना इस प्रकार होती है कि आर्थिक स्तर पर भेदभाव हो ही जाता है. ऐसे में न्यायिक व्यवस्था पर भी इसका असर पड़े यह सही बात नहीं है. समाज में फैली असमानता और भेदभाव से सामाजिक न्याय की मांग और तेज हो जाती है. सामाजिक न्याय के बारे में कार्य और उस पर विचार तो बहुत पहले से शुरू हो गया था लेकिन दुर्भाग्य से अभी भी विश्व के कई लोगों के लिए सामाजिक न्याय सपना बना हुआ है.
क्या है सामाजिक न्याय
सामाजिक न्याय का अर्थ निकालना बेहद मुश्किल कार्य है. सामाजिक न्याय का मतलब समाज के सभी वर्गों को एक समान विकास और विकास के मौकों का उपलब्ध कराना है. सामाजिक न्याय यह सुनिश्चित करता है कि समाज का कोई भी शख्स वर्ग, वर्ण या जाति की वजह से विकास की दौड़ में पीछे ना रह जाए. यह तभी संभव हो सकता है जब समाज से भेदभाव को हटाया जाए जो आने वाले कुछ वर्षों में शायद ही मुमकिन हो.
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न्याय की राह में रोड़े हजार हैं
आज समाज में फैले भेदभाव का एक घृणित चेहरा इस तरह का है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था के तहत बड़े से बड़ा घोटाला करने वाले नेता को तो चंद दिनों में ही रिहा कर दिया जाता है लेकिन एक छोटी-सी चोरी करने या चोरी के आरोप में एक गरीब बच्चा कई महीनों तक जेल में सड़ता है. न्याय और सजा का भय पुलिसवाले आम जनता को तो भली-भांति दिखाते हैं लेकिन संपन्न घराने के हत्यारों की कई बार खुद पुलिस ही सुरक्षा करती दिखती है. हाल ही दिल्ली में हुए गैंग रेप की गूंज तो पूरे भारत में सुनाई दी वहीं दूसरी ओर यूपी के एक इलाके में एक बलात्कार से पीड़ित लड़की ने न्याय के लिए आत्मदाह कर लिया लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं नहीं रेंगी. आखिर क्या यही समाज का न्याय है? क्या इसे ही हम सामाजिक न्याय कहते हैं.
भारत में सामाजिक न्याय
सामाजिक न्याय के संदर्भ में जब भी भारत की बात होती है तो हम पाते हैं कि हमारे संविधान की प्रस्तावना और अनेकों प्रावधानों के द्वारा इसे सुनिश्चित करने की बात कही गई है लेकिन इसके बावजूद जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ है.
भारत में फैली जाति प्रथा और इस पर होने वाली राजनीति सामाजिक न्याय को रोकने में एक अहम कारक सिद्ध होती है. भारतीय राजनेता भली-भांति जानते हैं कि समाज में ऊंच-नीच और भेदभाव कायम करके ही वह अपनी सत्ता बनाए रख सकते हैं. भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास आयोग जैसी कई सरकारी तंत्र एवम लाखों स्वंय सेवी संगठन हमेशा इस चीज की कोशिश करते हैं कि समाज में भेदभाव से कोई आम इंसान पीड़ित ना हो लेकिन जब तक समाज की सोच और खुद सरकार इस बारे में पहल नहीं करेगी तब तक कुछ सही हो पाना मुश्किल है.
World Social Justice Day 2013– विश्व सामाजिक न्याय दिवस
समाज में फैली भेदभाव और असमानता की वजह से कई बार हालात इतने बुरे हो जाते है कि मानवाधिकारों का हनन भी होने लगता है. इसी तथ्य को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने 20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया. सन 2009 से इस दिवस को पूरे विश्व में सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों द्वारा मनाया जाता है. हालांकि 20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाने का फैसला 2009 में ही हो गया था पर इसका मूल क्रियांवयन 2009 से शुरू किया गया.
भारत में आज भी कई लोग अपनी कई मूल जरुरतों के लिए न्याय प्रकिया को नहीं जानते जिसके अभाव में कई बार उनके मानवाधिकारों का हनन होता है और उन्हें अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है. आज भारत में गरीबी, महंगाई और आर्थिक असमानता हद से ज्यादा है, भेदभाव भी अपनी सीमा के चरम पर है ऐसे में सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय है.
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