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वीरता कहीं से सीखी नहीं जाती, यह जन्मजात भगवान की देन होती है. भारतभूमि को लोग आज जरूर भ्रष्टाचार, घोटालों और भ्रष्ट नेताओं की भूमि मानते हों लेकिन इस देश का इतिहास ऐसे लोगों के नाम से रोशन हैं जिन्होंने अपनी वीरता से देश को विश्व पटल पर नई पहचान दिलाई थी. देश के वीरों ने अपनी दिलेरी से ना सिर्फ दुश्मनों के दांत खट्टे किए थे बल्कि अपने बलिदान से देशभक्ति की नई मिसाल भी पेश की थी.
आज के नेताओं को जहां देश को लूटने से ही फुर्सत नहीं है वैसे में यह लोग कभी उन महापुरुषों के बलिदान को नहीं समझ सकते जिन्होंने निःस्वार्थ रूप से देश की सेवा की. ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे बिरसा मुंडा जिन्हें लोग बिरसा भगवान भी कहकर पुकारते थे. आज देश में गांधीजी, नेहरूजी आदि के जन्मदिवस या शहीदी दिवस पर आपको जरूर अखबार के पन्ने इनकी बड़ी तस्वीरों से पुते हुए मिलें लेकिन ऐसे बिरले ही मीडिया वाले हैं जो बिरसा मुंडा जैसे महानायक को याद करते हैं. तो चलिए आज हम बिरसा मुंडा की शहीदी दिवस पर उनको याद करें.
बिरसा मुंडा का जीवन
बिरसा मुंडा(Birsa Munda) का जन्म 1875 में लिहातु, जो रांची में पड़ता है, में हुआ था. यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आए. सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था.
बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था. जब वह अपने स्कूल में पढ़ते थे तब मुण्डाओं/मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह सकते हैं कि बिरसा मुण्डा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे.
बिरसा मुंडा का संघर्ष
बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया. बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया. उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका.
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है. उन्होंने वनवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया .
उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई और उन्हें 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला. उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. जनवरी 1900 में जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी. अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए.
9 जून, 1900 को रांची कारागर में उनकी मौत हो गई. उनकी मौत से देश ने एक महान क्रांतिकारी को खो दिया जिसने अपने दम पर आदिवासी समाज को इकठ्ठा किया था.
अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन में ही उन्होंने जो क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है. बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे.
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