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कहने को तो हम पूरी दुनिया में एक मई को श्रमिक दिवस (Labour day) के रूप में मनाते हैं लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज ज्यादातर श्रमिक अपने इस खास दिन के महत्व और इतिहास के बारे में नहीं जानते. आज भारत में 90 प्रतिशत से ज्यादा मजदूरों को यह तक नहीं मालूम कि श्रमिक दिवस होता क्या है और इसे क्यों मनाया जाता है. उन्हें तो दो वक्त की रोटी जुटाने के आगे फुर्सत ही कहां हैं कि वह समझ सकें कि श्रमिक दिवस है क्या?
चीन की हठधर्मिता के बावजूद सरकार चुप
लगभग सवा सौ साल पहले 1 मई, 1886 को शिकागो में मजदूरों ने श्रम की अधिकतम सीमा आठ घंटे निर्धारित करने के लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया था. उन दिनों बेरहम पूंजीपतियों ने मजदूरों की आवाज खामोश करने के लिए गोलियों का सहारा लिया. इस बर्बर कार्रवाई में लगभग आधा दर्जन मजदूर नेताओं को गलत मुकदमे में फंसाकर मौत की सजा दे दी गई थी. उनकी शहादत की याद में ही दुनिया में 1 मई को मजदूर दिवस (Labour Day) के रूप में मनाया जाता है.
सवा सौ साल पहले जिन मजदूरों ने एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी उसका असर जल्द ही पूरी दुनिया में देखने को मिला. सभी श्रमिक पूंजी की दासता की जंजीरों को तोड़ने का प्रण लेते हुए देखे गए. मजबूरन सरकारों को श्रम की अवधि आठ घंटे तक निर्धारित करनी पड़ी. यही नहीं, मजदूरों की एकजुटता से घबराई दुनिया के ज्यादातर मुल्कों की हुकूमतें श्रम कानून बनाकर काफी हद तक मजदूरों को स्वास्थ्य, आवास, पेंशन, यूनियन बनाने का अधिकार और न्यूनतम मजदूरी तय करने को मजबूर हो गईं.
लेकिन हाल के दिनों में अगर देखें तो एक तरफ जहां मजदूर आंदोलन अपना वजूद खो रहे हैं तो दूसरी तरफ उनकी आपसी फूट का फायदा उठाकर पूंजीपति एवं सरकार पुन: मजदूरों पर हावी हो गए. इसकी शुरुआत 1990 से हो गई थी जब आर्थिक नवउदारीकरण ने भारत में पैर पसारना शुरू कर दिया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ ने सामान्य मजदूरों का जीना ही मुश्किल कर दिया है. मजदूरों की हालत जानवरों से भी खराब हो गई है. उनके हक के लिए वर्षों पहले जो कुर्बानी दी गई थी, आज वह बेकार साबित हो रही है. वैसे तो पूरी दुनिया में मजदूरों की हालत दयनीय बनी हुई है, लेकिन यूरोपीय देशों, अमेरिका और भारत समेत कुछ एशियाई देशों में उनकी स्थिति बद से बदतर हो गई है.
चयनकर्ताओं के लिए खास हैं रोहित शर्मा
सुविधाओं के नाम पर आज उन्हें कुछ भी नहीं मिल रहा है. पूर्व में जो राजनीतिक और बुनियादी अधिकार मिले भी थे, उसे भी धीरे खत्म किया जा रहा है. सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज ही नहीं है और पूंजीवादी व्यवस्था की मनमर्जी की दास्तां लिखी जा रही है. भारत में श्रमिक आंदोलन का गौरवमयी अतीत रहा है. 70 और 80 के दशक में देश में कई मजबूत आंदोलन श्रमिकों की अगुवाई में हुए, लेकिन वर्ष 1990 के बाद हिंदुस्तान में श्रमिक आंदोलन को साजिशन कमजोर करने की कोशिश की गई.
पूंजीपति वर्ग और सरकार अपने नापाक मंसूबे में कामयाब भी हुए, लेकिन हकीकत यह भी है कि श्रमजीवी वर्ग से जुड़े लोगों को लंबे समय तक दबाया नहीं जा सकता. जरूरत है एक बार फिर श्रमिक कानून को मजबूत करने की ताकि श्रमिकों के साथ हो रहे अन्याय को रोका जा सके. इसलिए मजदूरों को श्रमिक दिवस के महत्व को समझते हुए एक बार फिर अलग-अलग खेमों में बंटकर लड़ने की बजाय अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ने की आवश्यकता है.
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