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बाबुल तेरे आँगन की थी मैं नन्ही सी कली
बाइस बसंत आँगन की तेरे छाँव में पली
दीदी से भी मुझको सानिध्य वो मिला
भाई ना होने का भी मुझको रहा नहीं गिला
अपने ही आँगन से क्यूँ विदा किया गया
मरने से पहले ही क्यूँ जला दिया गया
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सास ससुर को सदा मात पिता सा दिया मान
पति को भगवान से भी ऊंचा दिया स्थान
वापसी को मेरे था बंद हर कोई दरवाजा
माँ तेरे ही तो संस्कारों का था ये तकाज़ा
संस्कारों का मेरे ये क्या सिला दिया गया
मरने से पहले ही क्यूँ जला दिया गया
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मैं भी बाबुल के आँगन की बड़ी थी लाड़ली
कृपा से उस खुदा के मुझे भी बेटी एक मिली
मासूमियत की वह प्रतिमूर्ति बेमिसाल थी
अधिक नहीं गुड़िया की उम्र ढाई साल थी
वात्सल्य से माँ के उसको क्यूँ वंचित किया गया
मरने से पहले ही क्यूँ जला दिया गया
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ससुराल में समय यूं कुछ गुज़रता ही रहा
हर साल नया सामान कुछ भरता ही रहा
बेटी की खातिर सब कुछ देती जा रही थी तू
क्यूँ लालची भेड़ियों की भूख बड़ा रही थी तू
जल्द ही वो खौफप्रद खेल दिखा दिया गया
मरने से पहले ही क्यूँ जला दिया गया
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याद है जब एक रोज़ जब मैं छत से गिरी थी
मेरी तड़प देख तू महीनों न सोयी थी
मेरे खिलाफ षड़यंत्र के होते रहे प्रयास
अबकी बार माँ तुझको न क्यूँ नहीं हुआ एहसास
क्यूँ मुझको इस कदर भुला दिया गया
मरने से पहले ही क्यूँ जला दिया गया
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माँ रोटी बनाते हुए जब मेरी जली थी उंगलियां
दो दिन तक तू न सोयी थी रोई थी सुबह शाम
नाज़ों से जो बाबुल की गोद में पली थी मैं
उंगलियां क्या धीरे धीरे सम्पूर्ण जली थी मैं
जलने के इस दर्द को न क्यूँ महसूस किया गया
मरने से पहले ही क्यूँ जला दिया गया
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दीपक पाण्डेय
जवाहर नवोदय विद्यालय
नैनीताल
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