CHINTAN JAROORI HAI
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वो कौन सी तड़प थी वो कौन सा सुकून था
हर रोज़ तुमसे मिलने का मुझको जूनून था
उन संघर्ष के दिनों में बस गम ही तो पाता था
उन दुखों के मरहम को तुम्हारे ही पास आता था
तरक्की की कसौटी पर जब दुनिया परखती थी
वो तुम ही तो थी जो मुझे हर पल समझती थी
अपने आप में सिमट के मैं गुमसुम सा रहता था
तुम्हारे ही समक्ष तो सब दिल से कहता था
दुश्वारियों से तुमने ही तो मुझको निकाला था
जब भी सफर में भटका तुमने ही संभाला था
अब भी तो सारी खुशियाँ तुमसे बांटता हूँ मैं
तुमसे बाँट खुशियाँ, सुखों को तलाशता हूँ मैं
ये रिश्ता ये ज़माना कहाँ समझ पायेगा
सोचेगा कुछ अलग कुछ और ही बताएगा
जीवन के इस पड़ाव में ये देता हूँ मैं पैगाम
विचारों के गहन मंथन का ये ही है अंजाम
तुम्हारे मेरे बीच जो ये अद्भुत सा है किस्सा
न आता नज़र रक्षा बंधन का है ये रिश्ता
दीपक पाण्डेय
नैनीताल
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