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जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
…………
मानव रुपी गिद्धों को एक
अबला को नोंच खाते देखा
क़ानून की लाचारी के आगे
वहशी दरिंदे को मुस्काते देखा
सुन उस अबला की चीखों की गूँज
मैं अपने आप लजाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
…………
बच्चे बूढ़े महिलाओं को
ट्रेन में ज़िंदा जलते देखा
मानवता के हत्यारों की खातिर
असमय कोर्ट खुलते देखा
बुद्धिजीवियों को गद्दारों की
पैरवी करते पाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
…………
दादरी ह्त्या को दिखलाया ऐसे
मुल्क को मेरे बदनाम किया
मालदा की अराजकता से सारे
मीडिया तंत्र ने ही मुँह मोड़ लिया
मुल्क के इस चौथे स्तम्भ को देख
शर्मिंदा मैं होता जाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
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चार वर्ष की बच्ची जब
पिता की चिता स्वयं जलाती है
जान मैं दूँगी वतन की खातिर
ऐसा अक्सर बतलाती है
नमन शहीदों को करता हूँ
उनकी गाथा सुनाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
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शपथ ले भ्रष्टाचार दमन की
आम आदमी सत्ता में आता है
भूखे गरीब का पेट काट अपना
वेतन चार गुना बढ़ाता है
आम से ख़ास बनने का तमाशा
आज सबको दिखलाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
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बेघर हुए अपने ही कश्मीर में
अपनों के ही द्वारा गए लूटे
हाय इन बुद्धिजीवियों के मुँह से
दो भी बोल नहीं फूटे
लौटाए सम्मान सभी जो
चाटुकारिता करके लूटे
दिया सम्मान क्यूँ ऐसे गद्दारों को
ये सोच के मैं पछताता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
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गरीबी रेखा के नीचे रहना
अपना आधार समझता है
सत्रह बच्चे पैदाकर सुविधाओं पर
क्यूँ अपना अधिकार समझता है
विकास में योगदान शून्य पर
जनसंख्या को बढ़ता पाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
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षड़यंत्र जाल जहां स्वयं ही
जनता द्वारा बुना गया
पढ़े लिखे मतदाता द्वारा
अनपढ़ नेता चुना गया
चारा खाने वाले इंसान को
सिंहासन पे बैठता पाता हूँ
जयचंदों के बीच खड़ा हूँ
फिर भी लहराता जाता हूँ
…………
दीपक पाण्डेय
नैनीताल
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