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अब नहीं अर्जुन कोई अब नहीं कोई एकलव्य बचा
द्रोण का गुरुकुल महज़ अब भोजनालय रह गया
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ज्ञान मंदिर शतरंज की बन गया है इक बिसात
द्रोण,भीष्म,कृपाचार्य सब अब चल रहे हैं गोटियां
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धूर्त वो धृतराष्ट्र अपने स्वार्थ में हैं डूबता
नित नए षड़यंत्र में शकुनियों के घिर रहा
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महारथी हर एक कौरव मंडली में दिख रहा
ओट में अन्धकार के सत्य भी अब छिप रहा
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हरण हो रहा नगर में हर द्रोपदी के चीर का
आ रहा धुँधला नज़र किरदार भी अब कृष्ण का
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खिलने से पहले ही कलियाँ दफ़न हो जाती यहां
अश्वस्थामा हर इक चिकित्सक कोख हर एक उत्तरा
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चरित्र भी इंसान का इस कदर अब गिर रहा
ढूंढता हैं फिर रहा ज़नाज़ों में भी बोटियाँ
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ठंडी नहीं होने पाई मासूम की अब तक चिता
सेंकने लगा हाय मनुज उसमे भी अपनी रोटियां
दीपक पाण्डेय
नैनीताल
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