Menu
blogid : 14778 postid : 856317

सभ्य देशों द्वारा लड़ा छद्म युद्ध (आतंकवाद )

CHINTAN JAROORI HAI
CHINTAN JAROORI HAI
  • 179 Posts
  • 948 Comments

सर्वप्रथम तो यह जानना जरुरी है की जिस वहशी आतंकवाद को हमारा देश दशकों से झेल रहा है वह आतंकवाद कब कहलाने लगा क्या पहले यह विद्यमान नहीं था या आजकल जब यू ट्यूब में नज़र आने वाली वहशियत ही किसी धर्म विशेष का आतंकवाद है
यह आतंक वाद न तो किसी धर्म विशेष से सम्बंधित है और न ही इसका किसी निश्चित स्थान से लेना देना है इसकी शुरुआत अपना प्रभुत्व जमाने के लिए उन्ही सभ्य कहलाये जाने वाले देशों द्वारा शुरू की गयी जो आज इसके भुक्तभोगी हैं आतंकवाद एक छद्म युद्ध है जो किसी देश द्वारा आर्थिक मदद द्वारा किसी दुसरे देश के भीतर एक असंतुष्ट समाज की भावनाओं को भड़का कर उसे आर्थिक तथा हथियार की आपूर्ति कर लड़ा जाता है इतिहास गवाह है इस बात का की अफगानिस्तान में अलकायदा ,तालिबान आदि गुट अमेरिका द्वारा दी गयी आर्थिक मदद से रूसी फ़ौज़ से लड़ने के लिए पाकिस्तान की मदद से बनाये गए आज पेशावर में जो मासूमों को क़त्ल किया गया वह हथियार उसी पाकिस्तानी फ़ौज़ द्वारा दिए गए हैं तथा वह हत्यारे उन्ही के द्वारा प्रशिक्षित किये गए हैं
इस आतंकवाद को आतंकवाद तभी माना गया जब अमेरिका में ९/११ का हमला हुआ आतंकवाद उस शेर की सवारी की तरह है जब तक आप उस पर सवार हैं वह दूसरों को खता है बाद में वही शेर अपने सवार को भी खा जाता है इस प्रकार हम इस आतंकवाद को किसी धर्म विशेष से नहीं जोड़ सकते क्योंकि पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकी वास्तव में अमेरिका द्वारा मिलने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर हैं
हम स्वयं आतंक को एक धार्मिक लड़ाई के रूप में देखते हैं आज अखबार दैनिक जागरण में पड़ा आतंकी द्वारा २१ ईसाई का अपहरण क्या ये ईसाई मानव नहीं क्या खबर इस तरह नहीं होनी चाहिए आतंकी द्वारा २१ लोगों का अपहरण हम स्वयं व्यक्ति के बजाय धर्म विशेष को क्यों जोर देते हैं
अब समय आ गया है की सभी देश आत्ममंथन करें की यह आतंकवाद का रक्षक्ष सभ्य देशों के सभ्य समाज द्वारा ही निहित स्वार्थों की खातिर पैदा किया गया और अब सभी को मिलकर स्वार्थ रहित हो मानवता की खातिर एकजुट होकर लड़ना होगा और इसका समूल नाश करना होगा वार्ना पेशावर में होने वाली घटना की तरह अपने ही सिखाये अपने ही हथियारों द्वारा क़त्ल किये अपने ही मासूमों को कांधा देना पड़ेगा

अंत में अपनी इस कविता के द्वारा अंत करना चाहूंगा

जो बिखेरे थे फ़िज़ाओं में चन्द नफरतों के बीज
मासूम नस्ल को वो बन के खरपतवार खा गए
…………………………………………………..

क़त्ल और वहशियत को धर्म कहने लगे हैं लोग
धर्म को सियासत औ धर्म के ठेकेदार खा गए
…………………………………………………….

सड़कों में तड़पती रही वो औरत की नग्न देह
करके आबरू उसकी गिद्ध तार तार खा गए
………………………………………………….

सुचना तंत्र में संस्कार की अब दिखती नहीं झलक
विज्ञापन औ चलचित्र, अश्लीलता के संसार खा गए
……………………………………………………..

पैरों से कुचले जाना ही जिनका होता रहा है ह्स्र
गुलशन को वो फूल बन के आज खार खा गए
…………………………………………………

इस पार जो कहलाते हैं सौदागर मौत के
वज़ीर बन के आज वो उस पार आ गए
……………………………………………

सिखाया था जिसको बेरहमी से क़त्ल करने का हुनर
वो मिटा के आज उसका खुद का ही परिवार खा गए

दीपक पाण्डेय
नैनीताल

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply