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बुरा देखन जो मैं चला……

असमंजस
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चौराहे पे हमेशा की तरह मेरे विद्वान दोस्तों के साथ शाम की गंभीर मीटिंग कर रहा था . आस पास खड़े कुछ आवारा लडको से खुद को श्रेष्ट समझते हुए लगे हुए थे हम लोग देश की हालत के लिए सबको जिम्मेदार ठहराने. २-३ घंटे के गंभीर मीटिंग के बाद हम अपने अपने रास्ते चल दिए मन मे ये सोचते हुए कि हमे ही इस देश की सबसे ज्यादा चिंता है…और शायद कोई हमारे जैसा सोचता नहीं..और फिर अपने काम धंधे मे लग गया….

अभी कुछ दिनों पहले देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक बहुत बड़ा आन्दोलन चला,में भी उसमे शामिल हुआ.ऐसा लगा मानो देश कि परवाह हम लोगो को ही है..खुद पे अभिमान करते हुए करते हुए और देश पे तरस खाते हुए कुछ दिन निकल गए.आन्दोलन ख़त्म हुआ और हम चलते बने…

पेट्रोल पंप पे कल मे जब पेट्रोल डलवा रहा था तो अपनी न्यू ब्रांडेड कार में पेट्रोल डलवाने आये एक आदमी को देखा जो बार-बार अपनी कार और लोगो के चेहरे देख रहा था. चेहरे के तेज और बॉडी लैंग्वेज से समझ आ रहा था की भैया जी खुद को विशेष और बाकियों को सामान्य समझ रहे थे. मन ही मन मे हँसा उसकी छोटी सोच के लिए उसे मन मे धिक्कारा और चलते बना…..

अपनी माँ के साथ सन्डे के दिन खरीदारी कर रहा था तभी हमारे पुराने मोहल्ले में रहने वाली एक आंटी मिली. मिलते ही उन्होंने पूछा मेरा छोटा भाई क्या कर रहा है आज कल,माँ बोली पुणे मे जॉब कर रहा है…माँ कुछ और कह पाती वो आंटी तपाक से बोली मेरा बेटा भी हैदराबाद में है,बड़ी आईटी कंपनी में है,इतनी इतनी सैलरी है वगेरह वगेरह….और अपनी बात ख़त्म करके नमस्कार चमत्कार करके चलती बनी. मन में ख्याल आया शायद मार्केट आती ही इसलिए हैं ये आंटी जो पहचान का मिले ढिंढोरा पीटो और चलते बनो. मगर मैंने खुद को समझाया आंटी की सोच पे मन में हंसा और चलते बना….
हमारे शहर के एक नेता जिनका में बचपन से बहुत सम्मान करता था. क्यों की वो हमेशा जनता के बीच एक आम आदमी की तरह पेश आते थे और समस्याओ का प्रदर्शन कुछ ऐसे करते थे जैसे वो जनता की नहीं उनकी खुद की समस्याए हो और सुधार का आश्वासन भी देते थे. आज मै बड़ा हो गया हूँ और उनका वर्षो पहले स्वर्गवास हो गया है,लेकिन अब मे मन ही मन हँसता हूँ-बचपन में कितना मूर्ख था,नेता जी की नेता गिरी को नहीं समझ पाया ,नेता सब एक जैसे होते हैं…हाँ ,लेकिन मै जरुर कुछ अलग हू क्यों की मै जो देख पा रहा हूँ(मन मे हस पा रहा हू )वो शायद बाकि लोग नहीं देख पा रहे…..
कभी कभी मुझे लगता है की यार मुझे इतना ज्ञान(आलोचनात्मकता) है क्यों न लोगो को अपने विचारों से अवगत करूँ,और खुद के श्रेष्ट होने की पुष्ठी करूँ. मगर जितनी बार कोशिश की लोगो को अपने से ज्यादा ज्ञानी(आलोचक) पाया. अब तो मे पहले कन्फर्म कर लेता हू सामने वाला कितना ज्ञानी है उसके हिसाब से अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाता हूँ….

बस यही सब चल रहा है और ज़िन्दगी कट रही है.आलोचनात्मक रवैया रखो और चलते बनो…वेसे इसमें फायदा भी है,आप खुद की और लोगो की नज़र में समझदार भी दिखाई देते और और करना भी कुछ नहीं पड़ता….

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