एक और नया धारावाहिक शुरू हो गया है, जिसका नाम है ‘गंगा की धीज’. इसकी एक आध कड़ी देखकर आपको अंदाजा होगा कि यह धारावाहिक भी औरतों पर जुल्म की एक नयी दास्ताँ लेकर अवतरित हुआ है. आजकल होड़ सी लगी है स्त्रियों पर होने वाले नए-नए जुल्म और उनके तरीकों को दिखाने वाली कहानियों पर धारावाहिक प्रसारित करने की और इस तरह भोली-भाली जनता की संवेदनाओं पर आघात कर चैनल की टी.आर.पी बढ़ाने की. विगत कुछ वर्षों से औरतों के ऊपर पारिवारिक और सामाजिक आघात दिखाने वाले धारावाहिक लघभग हर चैनल पर दिखाए जा रहे हैं. गंगा की धीज में दिखाया गया है कि कैसे गाँव की परम्परा के नाम पर महामाया नाम की स्त्री हर विवाह योग्य लडकी की परीक्षा उसे गंगा-जल में सर तक डुबोकर करती है. परीक्षा में फेल होने वाली लडकी की शादी तो रोक ही दी जाती है दंडस्वरूप उस लडकी को पत्थरों से मार-मार कर लहुलुहान कर वेहोश कर दिया जाता है. जोर इस बात पर है कि लड़की अपने घर से बाहर कदम न रखे ताकि उसकी पवित्रता अक्षुण बनी रहे. वहीँ पर पता ये चलता है कि यह सब करतूत महामाया किसी भाई जी की कठपुतली बन कर कर रही है. मतलब यह हुआ कि एक तरफ तो औरतों का पुरुषों की तुलना में नगण्य मूल्याङ्कन दिखाई देता है तो वहीँ दूसरी तरफ एक गलत प्रथा के समर्थन में पूरा गाँव चाहे जिस कारण से हो खड़ा दिखाई पड़ता है. औरतों के प्रति यह कुरीतियाँ दर्शाने की शुरुआत बालिका बधू से हो गयी थी. राजा राम मोहन रॉय जिन कुरीतियों से बड़ी मुश्किल से लड़कर थोडा बहुत पार पा पाए थे, उससे ज्यादा भव्य तरीके से धारावाहिक में बाल-विवाह को महिमा-मंडित किया गया और जाने-अनजाने लोगों में अपने बच्चों की कम उम्र की शादी की और रिझाव ही पैदा किया. ‘अबकी बरस मोहे बिटिया ही कीजे’ में औरतों को रखैल बनाकर रखने, औरतों को बच्चा पैदा करने के लिए खरीदने का विरोध करने वाला कोई भी किरदार नहीं गढ़ा गया है. यहाँ तक कि मुख्य किरदार ललिया जो कि एक औरत है, वो स्वयं भी इस स्थिति को समर्पण करती ही दिखाई देती है. ‘प्रतिज्ञा’ धारावाहिक में एक लडकी से नायक जबरन गुंडागर्दी के बल पर शादी करता है. ससुराल में बहुओं की दशा नौकरानी से भी गयी-गुजरी है. एक किरदार तो अपनी बीबी को जुएँ के दांव पर लगाते दिखाया गया. अपनी बीबी को अपनी जागीर मान सदैव उसे मातृत्व के सुख से वंचित रखा. ‘१२/२४ करोल बाग़’ में इव टीजिंग की पराकास्ठा है तो वहीँ स्त्री-चरित्र के मानकों को धता बताने वाले किरदार भी गढ़े गए हैं. ‘देवी’ और ‘माता की चौकी’ किसी और अंदाज में स्त्री के प्रति होते अन्याय का महिमा-मंडन ही करते हैं. दूसरी और ‘राखी का इन्साफ’ और ‘बिग बॉस’ जैसे कार्यक्रमों में दिखाई जाने वाले दृश्य और संवाद भी किसी ना किसी लिहाज़ से संतुलन को विचलित करते प्रतीत होते हैं. समाज में नारी और पुरुष की सम्मान-जनक समानता की जगह, एक विद्रोह को पोषित करते प्रतीत होते हैं. कुल मिलाकर ये प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है कि एक ऐसे युग में जहाँ नारी और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर चलते हो प्राचीन सड़ी गली विकृत मान्यताओं को धारावाहिकों में दिखाकर अपनी टी.आर.पी. बढाने में लगे चैनल हमारे समाज को रिवर्स गिअर में क्यों चला रहे हैं? आखिर वो समाज में किस माहौल का सृजन करना चाहते हैं? आखिर ये कौन सी फसल काटना चाहते हैं? सवाल है कि दरअसल ये क्या बो रहे हैं?
किस युग में लौटना चाह रहे हो? क्या बो रहे हो, क्या बोना चाह रहे हो? अब तो सिक भी चुकी हैं रोटियाँ, क्यों भला फिर, खिचडी पकाना चाह रहे हो? लड़-लड़ कर वो, वक़्त की आंधियों से, तप-तप कर अंगार में, वक़्त के साथ, कुछ यूँ ढली है, आज की औरत के अब, रोक न पाओगे उसके कदम, अच्छा है समझो, उसे अब हम-कदम.
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