क्या हम नरक में रह रहे हैं? ये सवाल हर प्रदेश वासी के मन में एक न एक दिन जरूर उठता ही होगा. कभी बिहार के लोगों को देख कर हिकारत से मुंह फेर लेने वाले उत्तर प्रदेश के वासी निगाहें वचाते दिख जायेंगे. शायद यही कारण है की प्रदेश से बाहर और शायद विदेश में भी, उत्तर प्रदेश के रहने वाले अपने आप को उत्तर प्रदेश का वाशिंदा बताने से कतराते हैं. कभी उत्तर प्रदेश देश की साहित्यिक, औद्योगिक और सांस्कृतिक संस्कृति का रहनुमा हुआ करता था परन्तु आज इसकी गणना कहीं नहीं है. राजनैतिक उठापटक के माहौल ने स्थिति को बद से बदतर बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. प्रदेश की कानून-व्यवस्था से तो आम-जन परिचित है ही. किसी भी दिन का अखवार उठाकर देख लीजिये, पोल अपने आप खुल जायेगी. ताबड़-तोड़ अपराधों की श्रंखला मौजूद मिलेगी. कभी हापुड़ में ट्रेन डकैती पड़ जाती है तो कभी मझोला थाने के ठीक सामने डकैती पड़ जाती है. लखनऊ में दिन-दहाड़े सरे-राह दो-दो बार सी.एम्.ओ. जैसे उच्च पदासीन अधिकारी को गोलियों से छलनी कर दिया जाता है. मुरादाबाद में दो सगी बहनों को डकैत लूटने के बाद बेरहमी से क़त्ल कर देते हैं. बलात्कार की घटनाएं तो आम बात है. ये उत्तर प्रदेश ही है जहाँ निठारी कांड हो जाता है और आरुशी जैसी निर्दोष बच्ची के क़त्ल के केस का सत्यानाश हो जाता है….. पचासों अपराधों के मुक़दमे सर पर होने के वावजूद एक राजनीतिज्ञ चुनाव लड़ सकता है… किसी राजनेता की उपलब्धि तभी बड़ी होगी जब वो तकरीरों में माहिर होगा. कोरी तकरीरें और स्वार्थ परायणता सामाजिक विभाजन के लिए आग में घी का काम कर रहे हैं. दूसरी तरफ बिहार को नीतीश मिल गए तो उसके दिन बहुर गए. गुजरात में भी मोदी अपनी प्रशासनिक दक्षता के बूते अपने प्रदेश को सफलता के आसमान पर पहुंचा चुके हैं. आज उत्तर प्रदेश के उद्योग धंधो की स्थिति अत्यधिक सोचनीय है. मूलभूत सुविधाओं का अभाव और दिनों-दिन बढती गुंडा-गर्दी के कारण उद्योगपति इस प्रदेश से इतर रुख कर रहे हैं. वहीँ गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार और उत्तराँचल दिन दूने रात चौगने तरक्की की रह पर हैं. साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु उत्तर प्रदेश से सरक कर मध्य प्रदेश पहुँच चुका है. यह कहना गलत ना होगा की जिसके पास लाठी है, उत्तर प्रदेश में भैंस भी उसी की है. ऊपर वाले कभी इस प्रदेश में भी नीतीश या मोदी जैसा कोई भेज दो.
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