सीधा, सरल जो मन मेरे घटा
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झंकृत होते हैं सितार कई,
रचता है इन्द्रधनुष कोई,
मन भी होकर उड़न-खटोला,
पेंगे भर लेता है कई.
कलम होकर काव्यमय स्वयं ही
विखेरती रोशनाई है,
डूब चटक रंगों में कूंची ने
फिर से ली अंगड़ाई है.
सूखे झरने फिर से पाकर
वर्षा-जल को, हर्षाये हैं.
हरकारे, बंजारे और भंवरे
मधुर संदेशे लाये हैं.
मौसम पीतवर्ण त्याग कर
नूतन परिधान पहिरता है,
आँखों के कोठरोँ को अब
कुछ भी नहीं अखरता है.
चारों ओर कोई ताजगी
बिखरी पसरी लगती है,
बोझिल, गर्दो-गुबार की दुनिया
निखरी सुथरी लगती है.
प्रश्नों का मायाजाल है टूटा
उत्तरों का भी टोटा है,
निषंग भाव से घूम रहा मन
महल, बुर्ज, परकोटा है.
जीवन की परिभाषा सजकर
नयी-नयी हो जाती है
जब मुस्कान छिटककर कोई
मन-मंदिर में बस जाती है.
दीपक श्रीवास्तव
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