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लीक से हट कर तो जरा सोच कर दिखाओ

जैसी सोच वैसा वक्त
जैसी सोच वैसा वक्त
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लीक से हट कर तो जरा सोच कर दिखाओ
आज पता नहीं क्यों अचानक मेरे मन में यह सवाल आया कि ये रीति-रिवाज हम बनाते हैं । यह कोई परमात्मा द्वारा लगाई गई बंदिशें नहीं हैं जिन्हें हम बदल नहीं सकते। हम अपने जीवन के मास्टर हैं। हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं यह सिर्फ हम और हम ही तय कर सकते हैं। भई मैं आपको पहले ही स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि मैं कोई नारी उत्थान की लंबी-लंबी बातें नहीं कर रही हूं। पर हम सभी में आत्मा तो है ही और आत्मा की खुशी ही सर्वोपरि है। लेकिन मैं एक लड़की होने के कारण खासतौर पर शादी के बाद अजीब तरह की कशमकश से गुजर रही स्त्रियों के मनोस्थिति के बारे में बात करना चाहती हूं। यह मेरे निजि अनुभव हो सकते हैं पर इसके साथ ही मेरा यह पक्का यकीन है कि कई लड़कियां अपने मन में ऐसा ही बोझ लिए अपनी सारी जिंदगी बिता देती हैं। पर मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। मेरे माता-पिता ने मेरी परवरिश में अपनी जान लगा दी। मेरी मां ने तो सच पूछो, अपने खून और पसीने से ही हमें पाला। किसी चीज की भी कमी नहीं होने दी। मांगने से पहले ही सब कुछ मिल जाता था । आज मुझे यह सब इसलिए भी महसूस हो रहा है कि मेरे भी दो बच्चे हैं- एक बेटी और एक बेटा । मुझे मालूम हो चुका है कि कितनी तकलीफे शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक या जहनी तौर पर झेलनी पड़ती हैं तब जाकर बच्चे जिन्दगी में तरक्की करते हैं। मैने काफी समय से अपने बारे में सोचना ही छोड़ दिया है। मेरे बच्चों को क्या खाना पसंद है या उन्हें कैसे मैं अच्छी से अच्छी शिक्षा दूं या उनकी खुशी बस यही मेरी जिंदगी के आस पास का दायरा बन चुका है। बेटे या बेटी का प्रश्न तो मेरे दिमाग में एक बार भी पल भर के लिए भी नहीं आता । पर अनुभवों से देखुं तो लड़कियों के साथ सचमुच रीति-रिवाजों के नाम पर बहुत नाइंसाफी होती आई है। माता-पिता के लिए दोनों ही बच्चे चाहे वो लड़की हो या लड़का एक समान होते हैं। पर शादी के बाद लड़की को ही अपना घर छोड़ना पड़ता है—क्यों
शादी के बाद लड़के को दामाद के रुप में लड़की वाले सरांखों पर बिठाते हैं उसकी खुशी को अपनी जिम्मेदारी मानते हैं पर नाजों में और बेइंतहा प्यार में पली-बढ़ी लड़की को तो दुगनी सजा मिलती है। एक तरफ तो अपने मात-पिता से अचानक इतनी दूर जाने का दर्द और दूसरी तरफ अंजान लोगों में रहकर उन्हें खुश करते रहने की कोशिशों में जुट जाने की मुहिम। और मेरा यकीन है यह तो आप भी मानते होंगे वो लड़की तमाम कोशिशों के बावजूद उस परिवार का हिस्सा कभी बन ही नहीं पाती। हर कदम पर उसे अलग समझा जाता है। यही नही, उसकी परवरिश पर भी कई सवाल उठाए जाते हैं । इतनी कड़वाहट झेलो, पर सबसे हंस कर मिलो, बनावटी हंसी लाओ और रिश्ते निभाओ। मुझे तो हंसी आती है पहले नहीं आती थी, पर अब आती है यह सोच कर कि शादी के बाद अपने मात-पिता से मिलने के लिए भी अपने ससुराल वालों का मुंह ताकना पड़ता है। जिन परिवारों में बेटी ही है ऐसे परिवार के लिए तो बेटी की शादी काला पानी की सजा हो जाती है। यदि लड़की से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने ससुराल वालों की सेवा करें तो लड़कों की परवरिश में भी बेहद सुधार की आवश्यकता है उन्हें भी दामाद का टाईटल छोड़ लड़की के माता-पिता की सेवा की जिम्मेदारी तो लेनी ही चाहिए। हमारे समाज की प्रथा जो सदियों से चली आ रही है कि लड़की के मां-बाप को तमाम उर्म अपने बेटी की और शादी के पश्चात दामाद की सेवा भगत ही करनी है। यह किसी खुदा का आदेश नहीं है यह हमारा ही किया धरा है । और अगर हम वास्तव में यह चाहते हैं कि लड़कियों को कोई बोझ न समझे तो इसके लिए बड़े-बड़े कानून बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। पर हर परिवार को कम से कम अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी तो लेनी ही पड़ेगी। लड़कियों के साथ-साथ लड़को को भी लड़की के परिवार का सम्मान करने और उनकी जिम्मेदारी लेने के लिए पाठ पढ़ाए न सिर्फ अपनी असुरक्षा के चलते लड़कों को अक्कड़ दामाद बनने का दिन-रात एहसास दिलाएं। विवाह तो दो परिवारों का बंधन होता है। यह बंधन रीति-रिवाजों के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने का नहीं अपितु अपनेपन और अटूट प्रेम का होना चाहिए। इस बंधन में बाहरी दिखावा नहीं बल्कि अंदरूनी महोब्बत का जज्बा होना चाहिए चूंकि यह तो आप भी मानते ही होंगें कि खुशी का एहसास बाहरी चीजों में नहीं आत्मा की खुशी में ही है और आत्मा की खुशी का ताल्लुक सिर्फ शांति, प्रेम और पवित्र विचारों से ही है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए सहयोग की भावना लाएं चाहे वो रिश्ते हो, नौकरी हो या कुछ भी——————-

मीनाक्षी भसीन 3-09-14 © सर्वाधिकार सुरक्षित

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