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हम लोग

जैसी सोच वैसा वक्त
जैसी सोच वैसा वक्त
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हमारे कार्यालय में एक नया सिक्योरिटी गार्ड आया है जो हर रोज इतना खुश दिखाई देता है। ऑफिस में पहला कदम रखते ही उस शख्स की मुस्कराहट देखकर मैं इस कशमकश में पड़ जाती हूं कि इसकी हंसी मेरी बनावटी हंसी से इतनी बेहतर क्यों? मैं अपनी प्रमोशन को रो रही हूं। हंसने को कई बार तो मन ही नहीं करता पर यह क्या। अब बताईए यहां भी मैं कंपीटीशन कर रही हूं। मेरी यह कविता कम में ही गुजारा करने वाले ऐसे पाक और साफ सुथरी खुशनुमा जिंदगी बिताते हुए लोगों के नाम है जिनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं–मीनाक्षी

हम लोग
इस रोज की दौड़-भाग से, थक गए हैं लोग
भीड़ की तन्हाईयों में, खो गए हैं लोग

मासूमियत से भरे थे, जब थे हम नन्हे बच्चे
करते तो शरारते थे, पर मन के बड़े थे सच्चे
न कुछ पाने की थी कोई तमन्ना
न कुछ खो जाने का था कोई डर
खिलौने बना लेते थे जो भी मिल जाता था सड़क पर
अब तो पाने की भगदड़ में खुद को खोते जाते हम—

कहते तो तुमको दोस्त, हम पर मानते नहीं हैं
दोस्ती का सही मतलब, हम जानते नहीं हैं
परेशानी तुम्हारी देख सकून सा मिलता है
मिल जाए न तुमको बेहतर हर पल टेंशन में बीतता है
अच्छाई का नकाब पहन दुश्मनियां निभाते रहे हैं हम—–

रह रहे हैं हम मकान में, जो घर बनता ही नहीं है
जितना भी मिलता जाए, ये मन भरता ही नहीं है
नाम के रिश्ते के परदो से, मैं घर लगु सजाने
मन में भरा है कूड़ा, मैं लगा हूं फर्श को चमकाने
डिग्री की अमीरियत है, दरिद्रता है विचारों में
होंठों में है राम का नाम, सत्संग के लगाते हैं फेरे
हममें छिपा है रावण उसे पहचानते नहीं है
फिर भी कैसे हंस कर दशहरा मनाते रहें हैं हम

हर रोज सोचे मीनाक्षी, कैसे मिल जाए निजात इनसे
आपको क्या समझाउं मैं, हर रोज हार होती है मेरी मन से
जब पूरी होती जाएं उम्मीदें मेरे मुताबिक, तब तक रहुं खुश मैं
जो मिल न पाए मुझको आगे बढ़ा दूं खुदा के मैं
पड़ती और सुनती हूं, हर वक्त अच्छाई की बातें
जानती हूं इस जहां के, सारे झूठे हैं मोह के नाते
जाना हमें वहां हैं, जहां नेम, फेम न जाए
मगर जिंदगी बिता दी इन पर समय लुटाएं
इन ज्ञान की बातों को अमल में ला पाते नहीं हैं हम

मीनाक्षी भसीन 30-01-15© सर्वाधिकार सुरक्षित

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