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यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यह पक्तियां सिर्फ हिंदुस्तानी सभ्यता की ही नहीं , बल्कि मानवता की भी नीव है. कहा जाता है की “धरती पर यदि स्वर्ग” है तो वो माता के चरणो में ही है. नवरात्री में सारा देश माता का स्वागत करता है ? जय माता की बोलकर लोग पहाड़ो की यात्रा तक कर आते है. पर एक पुरानी कहावत है की कथनी और करनी में यदि फर्क हो तो ज़मीन स्तर पर आप कभी प्रगति कर ही नहीं सकते? कागज़ पर लिखे अलफ़ाज़, और ज़िंदगी के आयाम यह दो बिलकुल अलग बाते है .
“निर्भया कांड” दिल्ली का एक शर्मनाक कांड जिसने पूरे देश का दिल दहला दिया.अभी हम उस कांड को भुला भी नहीं पाये थे, की देश के अन्य भागो में फिर स्त्री की मर्यादा को वहशी दरिंदो ने अपना निशाना बनाया? क्या हमारे देश की स्वतंत्रता पर सिर्फ एक वर्ग का अधिकार है? आज का समय यदि प्रगति और तकनीक का है. तो हमारी मानसिकता को क्या हुआ है? की छोटी बच्चियों तक को हवस का शिकार बनाया जाता है, आंकड़े तो यहाँ तक बताते है की यदि कोई लड़की उम्र में बड़ी है पर दिमाग से एक मासूम बच्ची , तो उसकी तरफ मदद का हाथ तो बाद में बढ़ता है, पहले खतरनाक इरादे उसे अपना निशाना बनाने से भी पीछे नहीं हटते.
क्या यह सिर्फ कानून की हार है? हमारे देश में आज भी कई बच्चियों को माता के गर्भ में ही मार दिया जाता है. क्या भारत माता सिर्फ बेटो की माता है? बेटियो की नहीं , जब से मेडिकल साइंस ने उन्नति की है, तब से तो यह आकड़ा दुगुना तिगुना होता जा रहा है. “निर्भया कांड” के बाद समाज को जागरूक करने में कई विज्ञापनों ने ज़ोर पकड़ा . की जुलुम के खिलाफ अपनी आवाज़ तेज़ कीजिए. माधुरी दीक्षित एक विज्ञापन में यह कहती नज़र आई की अच्छा होगा की अगर हम लड़को से शुरू करे क्योकि बचपन से ही लड़को को सिखाया जाता है की लड़के रोते नहीं , बेहतर होगा की हम सिखाये की लड़के रुलाते नहीं है. इस बात का अर्थ शायद बहुत गहरा है. और यह विज्ञापन एक सकारात्मक सोच के साथ पूरे समाज से सवाल से कर रहा है है? पर क्या सच में बदलाव आया , ऐसा नहीं है की जब कुछ गलत होता है तो आवाज़ नहीं उठती . कैंडल मार्च होता है. पूरा युवा वर्ग एकजुट होता है , देश बेजोड़ आवाज़ में आमन्विक तत्वों का विरोध करता है. पर यह आवाज़ वास्तव में दिलो तक क्यों नहीं पहुंच रही है?
कोई भी देश तब महान नहीं बनता जब देश की जनता में डर हो, आज लडकिया रात में तो क्या दिन में सुनसान रास्तो पर जाने से डरती है ? यदि काम पर कोई महिला गयी है, आने में ज़रा सी देर हो जाये फ़ोन पर फ़ोन बज़ते है? कहा हो कैसे हो ठीक तो है? क्या यह हमारे पुलिस , प्रशासन , और समाज पर एक तमाचा नहीं है, की इस स्वंत्रत भारत में देश की बेटिया डर डर कर जीती है? कहते है एक लेखक समाज की तस्वीर होता है. वो आज कल और आज पर अपनी सोच से नयी नयी परिभाषाये लिखता है. पर देश में महिला शसक्तीकरण को लेकर तो युगो युगो से ग्रन्थ लिखे जा रहे है, सरकार नयी नयी नीतिया बनती है. पर क्या हमारी सोच बदली है? क्या चाहती है एक लड़की शायद यही की उसे समाज में इज़्ज़त मिले जीवन ज़ीने का अधिकार मिले? वो भी बिना किसी डर के पंख पसारे आसमान में उड़ सके ? आज़ाद हो, पर यहाँ तो पहनावे को लेकर ही विवाद उठ जाते है? हर सीख सिर्फ हम लड़कियों के लिए ही क्यों बनी है? यह प्रशन ऐसे है जिनके उत्तर तो मिलते है. पर समाज की सूरत नहीं बदलती. या फिर आसान शब्दों में कहु तो गलत को गलत कहने से नहीं बल्कि सही करने से फर्क पड़ता है?
मैँ जब भी कभी अखबार पढ़ती हु , या टीवी देखती हु , इंसान का वहशी चेहरा सामने आता ही आता है. तो फिर कैसे हम “भगवान की सर्वोच्च रचना” है ? एक बात तो सोचनी ही होगी की क्या “निर्भया” को हम सब सच्ची श्रद्धांजलि दे पाये है. शायद नहीं.कुर्बानी तब काम आती है जब बदलाव आये, क्या कभी हमने यह सोचा है जब खून से लथपथ किसी बेटी की लाश उसके घर वालो के सामने आती है तो परिवारवालों को कैसा लगता है? माता पिता बच्चो का भविष्य चुनते है उन्हें दुआ देते है, आशीर्वाद देते है. पर जब वही आशीर्वाद वास्तविकता से टकराता है तो शायद चूर चूर हो जाता है. हम विकास की दौड़ में चाहे कितनी लम्बी रेस लगा ले , पर असली जीत तो मूल्यों को साथ लेकर ज़ीने में है, और मूल्य भी वही जो मानवता के हित में हो? हर बार सिर्फ बहस से काम नहीं चलता ज़रूरी है की सूरत बदलनी चाहिए? कही भी हो पर पुकार की गूंज उठनी चाइये. भारत माता सिर्फ बेटो की ही नहीं है यह आवाज़ हर दिल तक पहुचनी चाहिए?……………
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