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दायित्व या दिखावा

deepti saxena
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आज मानव तकनीक की पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुका है. हम २१ वी सदी के वासी है जहा पलक झपकते ही आप दुनिया के कोने कोने की खबर देख सुन और जान सकते है, समय काटना या जानकारी प्राप्त करना आज कोई बड़ी बात नहीं है. टीवी खोलिए टेलीविज़न के इस क्रांति युग़ में सुबह से शाम तक आप के लिए कुछ न कुछ ज़रूर है, कुछ लोग डांस , कुकिंग और आज कल तो पढ़ाई के लिए भी टीवी को महत्वपूर्ण जरिया मानते है. मीडिया जगत ने “सूचना और स्वतंत्रता “के अधिकारों को सम्मान देने हेतु आज छोटी से छोटी बात भी हम तक पहुंचाई है. कभी “कौन बनेगा ” करोड़ पति से लोगो ने अपने ज्ञान में विस्तार किया तो कभी “रियलिटी” शोज ने न जाने कितने ही लोगो के सपने सच किये और उन्हें काम और नाम दोनों दिलाया .
यह एक चमत्कार ही तो है की आज हम दुनिया के किसी भी कोने को खुद से जोड़ सकते है. और साथ ही बिज़नेस को भी इस तकनीक ने बड़ा ही नाम और विस्तार दोनों ही दिया है. पर एक सवाल फिर भी उठता है मन में? की पिछले दिनों मैग्गी पर जमकर हंगामा हुआ ठीक भी है क्योकि देश के बच्चो का स्वास्थ्य सर्वोपरि है. पर अगर कुछ गलत खाना सेहत के लिए हानिकारक है तो क्या समाज को गलत “दिखाना” मनोरंजन का साधन बनाकर क्या यह गलत नहीं है? आप चाहे तो एक सर्वे करवा लीजिये इंडिया में आज भी स्लम एरियाज में आपको टाटा स्काई या डिश टीवी का कनेक्शन दिखेगा, लोग परिवार के साथ बैठकर टीवी का आनंद लेते है, सही भी है काफी सारी जानकारी जो सरकार हमे देना चाहती है “टेलीविज़न” उस माध्यम में सर्वोपरि है. पोलियो पर जीत समाज की चेतना का जागरूकता का एक नया उदाहरण है, बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ. गर्भ में कन्या हत्या कितना बड़ा अपराध है यह सभी जानकारी हमें “टेलीविज़न से ही प्राप्त होती है.
कितने ही “डेली सौप्स” ने यह सिद्ध किया की बहु और बेटी में कोई फरक नहीं है, “बाल विवाह ” अपराध है , गुनाह है समाज पर एक अभिशाप है, यह एक नए युग की और हमारी बढ़ती हुई चाहत है , जो एक ऐसा समाज बनाना चाहती है जहां बेटी और बेटे में कोई फर्क न हो जहां औरत पति की ढाल बने घर के साथ बाहर की ज़िम्मेदारी में आगे बढ़ बढ़ कर ख़ुद को सिद्ध करे , तो ऐसे समय में औरत को डायन या नागिन दिखाना सही है. कई बार पढ़े लिखे लोग तक “ढोंगियों “के जासे में आ जाते है . तो जो लोग बिना किसी मार्गदर्शन के ऐसे “डेली सोप” देखते है उनकी मानसिकता पर क्या असर पड़ता होगा? फिल्म जगत में फिल्म को पैनल मान्यता देता है की फिल्म छोटे बच्चे देखे या नहीं या फिर माता पिता के मार्गदर्शन पर देखे , पर टेलीविज़न की दुनिया में ऐसा नहीं होता क्या एक देश के नागरिको की यह नैतिक ज़िम्मेदारी नयी है की वो समाज को सही दिशा दे. आज कल टेलीविज़न जगत से तो लोग घर जैसा रिश्ता जोड़ते है , उनके किरदारों पर अपने बच्चो के नाम रख्ते है. तो ऐसे में औरत को डायन दिखा कर आप क्या सिख देना चाहते हो की औरत डायन होती है और वो भी वो जो घर में बहु बनकर आ सकती है फिर घर के”लोगो “के नाम पर मटके भरकर उन्हें गायब कर देती है . क्या इस बात पर समाज को प्रशन पूछने का अधिकार नहीं है ? की यह कौन सी मानसिकता है, आज जहां देखो वहां इतिहास के नाम पर खिलवाड़ किया जाता है , क्या हमें अधिकार है की हम देश के गौरवशाली इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करे ? क्या यह देश की सांस्कृतिक विरासत का अपमान नहीं है .
कुछ दिनों पूर्व कलर्स के धारावाहिक ” कोड रेड” में दिखाया गया की एक गाव में औरत को डायन बता कर उसके साथ किस प्रकार का अमानवीय व्यवहार हुआ , शायद वो हम सब के मुह पर तमाचा था, उस धारावाहिक में यह साफ़ साफ़ बताया गया की कोई भी “औरत ” डायन नहीं होती है . तो फिर क्यों उसी चैनल पर डायनो और नागिनों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है . सिर्फ देश के एक भाग में ही नहीं पूर्वोत्तर में भी औरत को डायन बताकर जला दिया गया , और कई भागो में ऐसे कितने किस्से मशहूर है .
क्या सिर्फ टी आर पि ही सब कुछ है? समाज को अज्ञानता के अन्धकार से बाहर लाना ज़रूरी नहीं ? और दुःख की बात तो यह है की यह सिलसिला सालो दर सालो चलता है एक सीरियल चार पांच सालो से आ रहा है. कभी उसमे औरत को भूत तो कभी नागिन और कभी डायन बताते है. मुझे लगता है जब सरकार “मैग्गी” के लिए इतनी अलर्ट है , की उसका विज्ञापन करने वाले सेलेब्रिटी से ही पूछ लिया की आप ऐसे प्रोडक्ट क्यों प्रमोट करते हो, तो किया इन “नायिकाओं ” से नहीं पूछना चाहिए की आप औरत होकर कैसे औरत को डायन या नागिन दिखा सकती हो . या कहानी लिखने वाले से पूछना चाहिए की आप क्यों यह सोच समाज में लाना चाहते है की औरत को फिर प्रमाढ देने पडे. की उसकी सीरत में ममता और प्यार है साज़िशें नहीं .
कल हम १५ अगस्त मनाने जा रहे है , मेरे अनुसार जब तक हम रूढ़िवादी सोच को तोड़ न दे तब तक आज़ादी अधूरी ही रहेग़ी ? आप लोग खुद ही विचार कीजिए.

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