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जीना किया ज़िंदगी से हार के

deepti saxena
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शिक्षा ज्ञान मनुष्य को न सिर्फ जीवन ज़ीने का अधिकार देता है बल्कि उसे सही और गलत की पहचान भी कराता है, आज का युग वैज्ञानिक सोच का है, एक विकसित सोच ही राष्ट्र को आगे ले जा सकती है, आज कल हम सब अपने स्वास्थ को लेकर काफी सजग हो गए है. आयुर्वेद , योगासन का बोलबाला पुरे विश्व में हैं, बड़े शहरों में जिम , मॉर्निंग एवंनिंग वाक लोगो के जीवन का हिस्सा बनती जा रही है, पुराने भारतीय समाज में घर में चक्की चला कर आटा पीसने की परंपरा थी जो शरीर को स्वस्थ रखने में एक महत्व पूर्ण भूमिका निभाती है, अच्छा खाना पान , व्यायाम यदि दैनिक दिनचर्या का एक भाग हो तो वास्तव में न सिर्फ शरीर स्वस्थ रहता है , बल्कि रोगप्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है.
आजकल जागरूकता की मुहीम सी छिड़ी है पर कई बार ऐसा होता है , की बहुत पढ़े लिखे लोग भी कुछ बीमारियो को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाते है . और उन बीमारियो से ग्रसित लोगो का समाज से ही बहिष्कार कर देते है, उनके प्रति सहनुभूति रखना तो बहुत दूर की बात है , लोग उनसे बात करना उन्हें छूना भी ज़रूरी नहीं समज़ते .

ऐसी ही एक बीमारी है एड्स. दुनिया भर में तेजी से पांव पसारते जा रहे एड्स का इलाज अब सम्भव हैं। इस स्थिति की भयावहता का ही यह परिणाम है कि एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब आमतौर पर जिंदगी का अंत मान लिया जाता है, लेकिन यह अधूरा सच है। अगर डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक चला जाए तो एचआईवी पॉजिटिव लोग भी लंबे समय तक सामान्य जीवन जी सकते हैं। एचआईवी (ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस) एक ऐसा वायरस है, जिसकी वजह से एड्स होता है। यह वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलता है। जिस इंसान में इस वायरस की मौजूदगी होती है, उसे हम एचआईवी पॉजिटिव कहते हैं। आमतौर पर लोग एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब ही एड्स समझने लगते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, होता यह है कि एचआईवी के शरीर में प्रवेश कर जाने के बाद शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (बीमारियों से लड़ने की क्षमता) धीरे-धीरे कम होने लगती है। प्रतिरोधक क्षमता कम होने से शरीर पर तमाम तरह की बीमारियां और इन्फेक्शन पैदा करने वाले वायरस आदि अटैक करने लगते हैं। एचआईवी पॉजिटिव होने के करीब 8 से 10 साल बाद इन तमाम बीमारियों के लक्षण दिखने शुरू हो जाते हैं। इस स्थिति को ही एड्स कहा जाता है। वैसे, एचआईवी पॉजिटिव होने के बाद से एड्स होने तक के वक्त को दवाओं की मदद से बढ़ाया जा सकता है और कुछ बीमारियों को ठीक भी किया जा सकता है। जाहिर है, एचआईवी पॉजिटिव होना या एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं हैं, बल्कि इसकी वजह से बीमारियों से लड़ने की शरीर की क्षमता कम हो जाती है और तमाम बीमारियां अटैक कर देती हैं। एचआइवी के दुष्प्रभाव को कम करने वाली एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता तंत्र को मजबूत करने वाली अनेक औषधियाँ हैं। ये एचआईवी विषाणु को मिटा तो नहीं सकती हैं लेकिन उसके मरीज को अधीक लंबी अवधी तक जीवित रखने में सहायक हैं।

प्रमुख प्रकार
इसके दो प्रमुख प्रकारहैं- एचआईवी -1 और एचआईवी 2। एचआईवी -1 चिम्पांजी और पश्चिमी अफ्रीका में रहने वाले गोरिला में पाए जानेवाले विषाणु हैं, जबकि एचआईवी -2 साँवले मंगबेयों में पाए जाने वाले विषाणु हैं। एचआईवी -1 को और समूहों में विभाजित किया जा सकता है। एचआईवी -1 एम ग्रुप विषाणु प्रबल होता है और एड्स के लिए जिम्मेदार है। आनुवंशिक अनुक्रम ब्यौरे के हिसाब से ग्रुप एम और कई रूपों में उब्विभाजित हो सकता है। उपप्रकारों में से कुछ अधिक उग्र होते हैं या अलग दवाओं से प्रतिरोधी रहे हैं। इसी तरह, एचआईवी – 2 वायरस कम उग्र और एचआईवी -1 कम संक्रामक माना गया है, हालांकि 2 एचआईवी 2 भी एड्स का कारण माना गया है।

भारत में एड्स

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में हाल के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 14-16 लाख लोग एचआईवी / एड्स से प्रभावित है. हालांकि २००५ में मूल रूप से यह अनुमान लगाया गया था कि भारत में लगभग 55 लाख एचआईवी / एड्स से संक्रमित हो सकते थे। २००७ में और अधिक सटीक अनुमान भारत में एचआईवी / एड्स से प्रभावित लोगों कि संख्या को 25 लाख के आस-पास दर्शाती है। ये नए आंकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन और यू.एन.एड्स द्वारा समर्थित हैं. संयुक्त राष्ट्र कि 2011 के एड्स रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 वर्षों भारत में नए एचआईवी संक्रमणों की संख्या में 50% तक की गिरावट आई है.

भारत में एड्स से प्रभावित लोगों की बढ़ती संख्या के संभावित कारण

आम जनता को एड्स के विषय में सही जानकारी न होना
एड्स तथा यौन रोगों के विषयों को कलंकित समझा जाना
शिक्षा में यौन शिक्षण व जागरूकता बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम का अभाव
कई धार्मिक संगठनों का गर्भ निरोधक् के प्रयोग को अनुचित ठहराना आदि।
एड्स की निश्चित रूप से पहचान केवल और केवल, औषधीय परीक्षण से ही की जा सकती है व की जानी चाहिये। एचआईवी संक्रमण के तीन मुख्य चरण हैं: तीव्र संक्रमण, नैदानिक ​​विलंबता एवं एड्स.

माँ से बच्चे में एच. आई. वी. संक्रमण
एचआईवी माँ से बच्चे को गर्भावस्था के दौरान, प्रसव के दौरान और स्तनपान के दौरान प्रेषित हो सकता है. एचआईवी दुनिया भर में फैलने का यह तीसरा सबसे आम कारण है. इलाज के आभाव में जन्म के पहले या जन्म के समय इसके संक्रमण का जोखिम २०% तक होता है और स्तनपान के द्वारा यही जोखिम ३५% तक होता है. वर्ष २००८ तक बच्चो में एचआईवी का संक्रमण ९०% मामलों में माँ के द्वारा हुआ। उचित उपचार होने पर माँ से बच्च्चे को होने वाले संक्रमण को कम कर के यह जोखिम ९०% से १% तक लाया जा सकता है]. माँ को गर्भावस्था और प्रसव के दौरान एंटीरेट्रोवाइरल दवा दे कर, वैकल्पिक शल्यक्रिया (आपरेशन) द्वारा प्रसव करके, नवजात शिशु को स्तनपान से न करा के तथा नवजात शिशु को भी एंटीरिट्रोवाइरल औषधियों कि खुराक देकर माँ से बच्चे में एच. आई. वी. का संक्रमण रोका जाता हैं ]. हलांकि इनमें से कई उपाय अभी भी विकासशील देशों में नहीं हैं।

एड्स से बचना मुश्किल नहीं हैं. और न ही यह ऐसी कई बीमारी है जो छुआछूत से फैलती हैं. आज का समय जागरूकता का हैं, तो किसी भी जानकारी से वंचित न रहे . जिस स्तर पर संभव हो लोगो में चेतना को उजागर करे . हमारे देेश में एड्स के प्रति जागरूकता लानेके लिए “मूवीज ” भी बनाई जाती है , ताकि समस्या का समाधान हो और आम लोगों तक जन जन तक जानकारी पहुंच सके.

अभी हाली में टीवी पर प्रसारित “मिशन सपने” में एचआईवी पॉजिटिव से पीड़ित परिवार की कहानी दिखाई गयी जिसमे साफ़ साफ़ बताया गया की एड्स एक घर में साथ रहने से नहीं फैलता. अगर आप एच.आई.वी पॉजिटिव हैं तो यह जीवन का अंत नहीं हैं, डॉक्टर की सलाह और अच्छे खान पान से आप एक आम ज़िंदगी ज़ी सकते है, परन्तु उस परिवार का समाज ने तो क्या खुद उनके अपने लोगो ने बहिष्कार कर दिया, सहानभूति तो दूर उन्हें खुद से ऐसे अलग किया जैसे कोई सड़ा हुआ दात निकल कर फेक देता है . क्या यह पाप नहीं है? क्या हम कैंसर और टीवी से ग्रसित लोगो का बहिष्कार करते हैं , नहीं तो फिर यहाँ क्यों? इसी डर से लोग इस बिमारी को बताते नहीं हैं. छुपाते हैं . दवाई नहीं लेते है . और न चाहते हुए यह बीमारी समाज में एक अभिशाप बन अपने पैर पसार रही हैं. जैसे बारिश की बुँदे धरती को उम्मीद देती हैं वैसे ही क्यों हम एचआईवी पॉजिटिव से पीड़ित व्यक्ति को एक उम्मीद नहीं देसकते ? मरने से पहले मारना , हर पल जीवन में शर्म आँख उठाकर देखना तो दूर घर से बाहर भी न निकल पाना क्या यह एक संकीर्ण सोच को नहीं दर्शाता ?

हमारी लड़ाई “रोगी ” से नहीं रोग से होनी चाहिए . जैसे आज पोलियो के लिए समाज में जागरूकता हैं , हम देश को स्वस्थ यंगिस्तान बनाने में एक भरसक प्रयास कर रहे हैं, तो एचआईवी से लड़ने की मुहीम क्यों नहीं शुरू करते ,समाज को दिशा प्रदान करना , आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ समाज देना यह हम सब की न सिर्फ ज़िम्मेदारी हैं बल्कि हमारा नैतिक कर्तव्य भी.

रक्तदानं महान दान माना जाता हैं, यदि आपको किसी का जीवन दाता बनाना हैं तो खुद को स्वस्थ रखना बहुत ज़रूरी हैं . इसलिए मेरा नम्र आग्रह हैं की सतर्क रहे , सही जानकारी को प्राप्त करे. हम कई बार अपने आहार के बारे में बात करते हैं . वास्तव में भारत में ऐसे बहुत सारे शाख सब्ज़ी हैं. जिनका नित्य सेवन आपको रोगो से मुक्त जीवन ज़रूर देगा. एड्स के लिए जानकारी इंटरनेट और टीवी पर आसानी से प्राप्त हो जाती है. तो किसी भी छलावे पर न जाये , सिर्फ डिग्री नहीं जानकारी इकट्टा करे . और सिर्फ घर की “बहु ” ही नहीं समाज की एक जागरूक नागरिक बने , क्योकि महिलाये जागरूकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.

एड्स का एक बड़ा दुष्प्रभाव है कि समाज को भी संदेह और भय का रोग लग जाता है। यौन विषयों पर बात करना हमारे समाज में वर्जना का विषय रहा है। निःसंदेह शतुरमुर्ग की तरह इस संवेदनशील मसले पर रेत में सिर गाड़े रख अनजान बने रहना कोई हल नहीं है। इस भयावह स्थिति से निपटने का एक महत्वपूर्ण पक्ष सामाजिक बदलाव लाना भी है। एड्स पर प्रस्तावित विधेयक को अगर भारतीय संसद कानून की शक्ल दे सके तो यह भारत ही नहीं विश्व के लिये भी एड्स के खिलाफ छिड़ी जंग में महती सामरिक कदम सिद्ध होगा।

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