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बच्चे भगवान का रूप होते है. उनका निश्छल मंन, प्यार और अपनापन शायद पुरे परिवार की जान होता है. बच्चे आने वाले कल का भविष्य है. इसलिए सरकार और समाज दोनों ही उन्हें पूर्णतया सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश करते है. कुछ बच्चे आगे जाकर देश और दुनिया का भविष्य ही बदल देते है. बचपन में जो कथा कहानिया हम अपने माता पिता से सुनते है. कई बार बच्चे उन्हें ज़ी उठते है. समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हुए है जिन्होने भीड़ से अलग हटकर काम किया. जिन्होने समर्पण को ही जीवन का मुख्य आधार माना.
सिन्धुताई का जन्म १४ नवम्बर १९४७ महाराष्ट्र के वर्धा जिल्हे मे ‘पिंपरी मेघे’ गाँव मे हुआ। आर्थिक परिस्थितयो , घर कि जिम्मेदारीयाँ और बालविवाह इन कारणों कि बजह से उन्हे पाठशाला छोड़नी पड़ी जब वे चौथी कक्षा कि परीक्षा उत्तीर्ण हुई।जब सिन्धुताई १० साल की थी तब उनकी शादी ३० वर्षीय ‘श्रीहरी सपकाळ’ से हुई। जब उनकी उम्र २० साल की थी तब वे ३ बच्चों कि माँ बनी थी। गाँववालों को उनकी मजदुरी के पैसे ना देनेवाले गाँव के मुखिया कि शिकायत सिन्धुताईने जिल्हा अधिकारी से की थी। अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए मुखियाने श्रीहरी (सिन्धुताई के पती) को सिन्धुताई को घर से बाहर निकालने के लिए प्रवृत्त किया जब वे ९ महिने कि पेट से थी। उसी रात उन्होने तबेले मे (गाय-भैंसों के रहने की जगह) मे एक बेटी को जन्म दिया। जब वे अपनी माँ के घर गयी तब उनकी माँ ने उन्हे घर मे रहने से इनकार कर दिया (उनके पिताजी का देहांत हुआ था वरना वे अवश्य अपनी बेटी को सहारा देते)। सिन्धुताई अपनी बेटी के साथ रेल्वे स्टेशन पे रहने लगी। पेट भरने के लिए भीक माँगती और रातको खुदको और बेटी को सुरक्शित रखने हेतू शमशान मे रहती। उनके इस संघर्षमय काल मे उन्होंने यह अनुभव किया कि देश मे कितने सारे अनाथ बच्चे है जिनको एक माँ की जरुरत है। तब से उन्होने निर्णय लिया कि जो भी अनाथ उनके पास आएगा वे उनकी माँ बनेंगी। उन्होने अपनी खुद कि बेटी को ‘श्री दगडुशेठ हलवाई, पुणे, महाराष्ट्र’ ट्र्स्ट मे गोद दे दिया ताकि वे सारे अनाथ बच्चोंकी माँ बन सके।
समर्पण , त्याग सिंधुताई के जीवन का आधार है इसलिए उन्हें “माई ” माँ कहा जाता है. सिन्धुताई को कुल २७३ राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए है जिनमे “अहिल्याबाई होऴकर पुरस्कार है जो स्रियाँ और बच्चों के लिए काम करनेवाले समाजकर्ताओंको मिलता है महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा। यह सारे पैसे वे अनाथाश्रम के लिए इस्तमाल करती है। उनके अनाथाश्रम पुणे, वर्धा, सासवड (महाराष्ट्र) मे स्थित है। २०१० साल मे सिन्धुताई के जीवन पर आधारित मराठी चित्रपट बनाया गया “मी सिन्धुताई सपकाळ”, जो ५४ वे लंडन चित्रपट महोत्सव के लिए चुना गया था।
सिंधुताई कविता भी लिखती है. उनके पति जब 80 साल के हो गए तब उनके साथ रहने के लिए आये. सिंधुताई ने बड़े गर्व के साथ उन्हें स्वीकार किया पर एक बेटे के रूप में क्योकि समाज में आज उनकी पहचान सिर्फ और सिर्फ एक माँ के रूप में है. हर धर्म में माँ का स्थान सर्वोच्च माना गया है. इस्लाम में माना गया है की अगर कही ज़न्नत है तो वो माँ के चरणो में है, और हिन्दू धर्म में स्त्री को ज्ञान , धन और शक्ति का स्वरुप भी माना जाता है. हमारे यहाँ कहावत भी है “कि जहा होता है औरत का सम्मान वहां देवताओ का वास होता है. सिंधुताई वास्तव में में एक मिसाल है कभी कभी हम धर्म ज्ञान कि बातो को अपनी बातो में स्थान देते है. पर कुछ लोग युग पुरुष होते है जो उन्हें अपने कर्मो में लेकर ज़ी उठते है.
सिंधुताई अपनी माँ को भी सदा ही सम्मान और धन्यवाद देती है क्योकि उनकी माँ कि वज़ह से ही वो इतने बच्चो कि माँ बन सकी . क्योकि जब सिंधुताई को उनके पति ने घर से निकला तब उनकी माँ ने उन्हें सहारा नहीं दिया. शायद कोई और होता तो वो जीवन से ही हार मान जाता .
पर जो लोग धाराओ के विपरीत नाव चलाना जानते है, मिसाल वही कायम कर पाते है. हौसलो कि पहचान मुश्किल समय में ही होती है. यह कहानी एक ऐसी नायिका कि है जिसकी सोच, समाज के प्रति समर्पण ने उसे एक अलग स्थान दिया. नारीत्व कि पहचान और ताकत है ममता. जिस प्यार से औरत अपनी संतान को बड़ा करती है . उन पर पूरा जीवन समर्पित कर देती है. उसी प्रकार सिंधुताई ने समाज कि अनसुनी सिसकियो कि पुकार सुनी. सर्द रातो में कापति हथेलियों को थामा. यह सोचा कि जो मासूम आखे आज बिना किसी आधार के ज़ी रही है . उनको रंग कैसे देने है.
मैंने सुना है कि ज़िंदगी कि ताल पर कदम मिलाना आसान नहीं होता. पर सिंधुताई ने जीवन कि लड़ाई के साथ साथ मानवता के लिए भी लड़ाई लड़ी. हम में से कितने है. जो जीवन में कभी किसी ज़रूरत मंद के जीवन में रंग भरते है, बस एक इमोशनल मैसेज फेसबुक पर पढ़ा , वाट्स अप पर लाइक लिया और पूरा हो गया हमारा फ़र्ज़.
या सुबह सुबह पेपर पढ़ा, सरकार कि समाज कि बुराई कि , देश कि खामिया निकाली और बन गए हम एक ज़िम्मेदार नागरिक . बचपन में मैंने पढ़ा था कि लकडिया जब अलग अलग हो तब आसानी से उन्हें तोढा जा सकता है. पर अगर वो एक गट्ठर बन जाये तो उसकी ताकत अजेय हो जाती है. जैसे अलग अलग हम हाथो कि अलग अलग उंगलिया है . पर एक साथ मिल जाये तो एक मुट्ठी है.
यही सोच हमें राष्ट्र के लिए बनानी होगी कि अपने स्तरपर हम जो कुछ कर सके वो समाज के लिए ज़रूर करे . कहा भी जाता है कि “तन समर्पित , मन समर्पित “चाहता हु देश कि धरती तुझे कुछ और भी दू . बूँद बूँद से ही घड़ा भरता है. इसलिए अपनी सोच को अपनी कोशिश को कभी भी कम मत आकिये , जो कुछ कर सके वो समाज के लिए ज़रूर कीजिए .हम से ही आने वाला भविष्य और आज बनता है. आने वाली पीढ़ी को हम क्या विरासत देना चाहते है यह हमपर ही निर्भर करता है. इसलिए समाज कि मुश्किलो को परेशानियों को अनदेखा ना करे . मदद के लिए हाथ ज़रूर बढ़ाए , क्योकि जब हम जागेगे तभी तो दुनिया जागेगी.
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