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जिस प्रकार से चार न्यायाधीश पत्रकारों के सामने आकर अपना विरोध मुख्य न्यायाधीश के बारे में बता रहे थे उससे सिर्फ इसका आभाष होता है कि ये मान्यवर अपनी रोटियां सेकने आये हें. साथ ही राजनीतिक पार्टिओं को अपनी रोटियां पकाने में मदद देना इनकी मंशा रही है. इन लोगों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति प्रकट करना या यह सोचना कि सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा या लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था को सबल रखने का इनका इरादा है बिलकुल निराधार है. इनके इस प्रयास के पीछे प्रतिपक्ष राजनीतिक पार्टिओं का बड़ा हाथ भी हो सकता है. भारत की पुरानी पार्टी कांग्रेस के घडियाली आंसू बहाने से तथा जजों के मुख्य न्यायाधीश के कार्य आवंटन के मुद्दे को संसद में बहस का विषय हो इस किस्म का सुझाव आने से यह प्रदर्शित होता है कि कांग्रेस पार्टी न्यायापलिका में माहौल बिगाड़ना चाहती है. माननीय जजों द्वारा जनता के बीच उनके समझ से कार्य प्रणाली की व्यक्तिगत मान्यताओं के विषय में निंदनीय क़दम कांग्रेस पार्टी को भले ही इन जजों द्वारा प्रभावित करने का सफल प्रयास हो कांग्रस पार्टी की सोच निंदनीय है.
इन चार जजों का यह मानना है कि इस प्रकार के कई निर्णय मुख्य न्यायाधीश द्वारा लिए गए जो अदालत के निष्पक्ष कार्य प्रणाली के विपरीत है. इन जजों का यह भी कहना है कि न्यायाधीश चेलामेस्वर के इस न्यायिक फैसले को रद्द किया गया जो एक संविधान पीठ के गठन से सम्बंधित था जिसका गठन सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गयी एक याचिका के अंतर्गेत इस बात की निष्पक्ष जांच के लिए किया गया था कि एक निजी मेडिकल कॉलेज के केस में फैसला को प्रभावित करने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय के जजों को घूस देने का षड़यंत्र किया गया था. इस केस की सुनवाई संविधान पीठ द्वारा हुई जिसमे जज R K अग्रवाल, अरुण मिश्र एवं A K खानविलकर ने हिस्सा लिया. इस याचिका के सम्बन्ध में निर्णय यह था कि यह निराधार है और याचिका दायर करने वाली गैर सरकारी संस्था को २५ लाख रुपयों का जुरमाना हुआ ताकि इस सन्दर्भ में कोर्ट पर हुए खर्च की भरपाई हो.
इन माननीय जजों के अनुसार न्यायाधीश गोयल तथा न्यायाधीश ललित के इस निर्णय को भी अप्रासंगिक तथा त्रुटिपूर्ण समझा जाना चाहिए जिसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के जजों एवं उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया अनुदेश को अंतिम रूप देने में देर न करने का आदेश था. इन माननीय जजों का मानना है कि इन जजों को इस केस से दूर रहना चाहिए था क्योंकि वरिष्ठ जजों द्वारा इस विषय में निर्णय लिया जा चूका था और प्रक्रिया अनुदेश सरकार को भेजा जा चूका था. सरकार की ओर से कोई उत्तर नहीं आया जो इसका संकेत है कि प्रक्रिया अनुदेश सरकार को मान्य है. इन जजों का यह भी कहना है कि जजों की नियुक्ति सम्बंधित प्रक्रिया ज्ञापन के सम्बन्ध में निर्णय मुख्य न्यायाधीश और सभी न्यायाधीशों द्वारा गठित समूह को एक साथ मिलकर लिया जाना चाहिए. केवल दो न्यायाधीश द्वारा गठित संविधान पीठ का निर्णय अंतिम नहीं समझा जाना चाहिए.
इस प्रकार आपको यह भी समझ लेना चाहिए कि बात कोर्ट के निर्णय की नहीं है. यहाँ समस्या अहम् की भी है. फिर इन चार न्यायाधीशों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि जनता के बीच आकर सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाकर इन्हें क्या मिला. हाँ ममता बनर्जी और राहुल जैसे राजनेताओं का समर्थन उन्हें ज़रूर मिला. और इससे इस बात की आशा बढ़ी कि देश में हंगामा होगा.
अगर इन न्यायाधीशों ने अपनी बात मुख्य न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत की और मुख्य न्यायाधीश ने इसे अनसुनी कर दी तो इन्हें एक बार फिर सामूहिक प्रयास करना चाहिए था.
यदि फिर भी संतोषजनक समाधान नज़र नहीं आता तो इन न्यायाधीशों को माननीय राष्ट्रपति को एक ज्ञापन देना था. सड़क पर आकर आक्रोश एवं असंतुष्टि प्रस्तुत करना ओछापन का प्रतीक है और इससे प्रतिपक्ष के साथ साझेदारी की बू आती है जिसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है.
इस सन्दर्भ में वकील संगठनों का सुझाव एवं प्रयास सराहनीय है. बहती गंगा में हाथ धोने के बजाये उनके रचनात्मक सुझावों का पूरा देश आभारी है. विशेषतया इस बात से कि इन्होने राष्ट्र हित को ध्यान में रखा और सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा के बचाव की बात की
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