यौन हिंसा और घरेलू आतंकवाद – आपसी विश्वास खोते हम लोग
बोलती चुप..
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यौन हिंसा और घरेलू आतंकवाद – आपसी विश्वास खोते हम लोग
आज सड़क चलते यदि कोई लिफ्ट मांगता है तो डर के साथ मन में प्रश्न आता कि उसे लिफ्ट दें या नहीं? सहायता से पहले शक दिमाग में जगह बना लेता है। यदि सहायता की प्रवृत्ति को महत्व देकर एक अनजान व्यक्ति को लिफ्ट दे भी दें तो पूरे रास्ते ऐसा लगता है कहीं हमने स्वयं ही खतरा मोल तो नहीं ले लिया। यदि वो बात न करे तो हमें संदेह होता है कि वह कोई योजना तो नहीं बना रहा और यदि वो हमारे विषय में कुछ ज्यादा जानना चाहे तो भी हमें शक होता है कि यह परिचय बढ़ाने का प्रयास क्यों कर रहा है? बेधड़क अपने घर, परिवार या मुहल्ले में घूमने वाले हम लोग अब अपने ही लोगों से नजर बचाके चल रहे हैं कि कहीं हमारी नजर में कुछ ऐसा न हो जो किसी को संदेहास्पद लगे। हम किसी और पर तो छोडि़ए खुद पर शक करने लगे हैं? यह संदेह का पौधा हमारे दिमागों में यूं ही नही उगा है, देश में कुछ ऐसी स्थितियां लगातार बनी हैं कि जिन्होंने हमारे दिमागों में संदेह के बीज डाले और लगातार उन बीजों को सींचा और उनके विकास में सहायक बनीं। इन स्थितियों का ताजा उदाहरण हैं दिल्ली की घटना और हैदराबाद की घटना। दोनों घटनाएं पूर्णत: भिन्न हैं परंतु दोनों ने ही हमारे एक-दूसरे पर विश्वास में कहीं दरार डाली है और दोनों ने ही एक विचार को हमारे दिमागों में रोपा है और वह है संदेह या शक का विचार। कहीं न कहीं संदेह की दृष्टि हमारी विवशता बन गई है। यौन हिंसा के नाम पर महिलाएं या महिलाओं के लिए फ्रिकमंद उनसे जुड़े लोग पुरुषों को संदेह से देख रहे हैं और आतंकवाद से भयभीत सभी नागरिक एक दूसरे को संदेह से देख रहे हैं। इस दृष्टि से यह संदेह करने का या विश्वास खोने का दौर कहा जा सकता है।
संदेह के इस युग का सामाजिक परिदृश्य यह है कि घरों के बीच की दीवारें मजबूत होती जा रही हैं और दीवारों में पाई जाने वाली वे खिड़कियां नदारद हो रही हैं जिनसे दो घर के लोगों के बीच खाने-पीने की चीजों से लेकर रिश्तों तक की अदला-बदली हुआ करती थी। देश और पड़ोस तो छोडि़ए परिवार में ही रिश्तों पर अब यकीन नहीं होता है, यौन उत्पीडऩ और महिला सुरक्षा पर बहस ने घरों के खुले कोनों को भी पर्दों में ढकेल दिया है।
प्रत्येक आंतकवादी घटना के बाद हम इतना सतर्क हो जाते हैं कि हमें हर गली चौराहे पर रखी सायकल-मोटरसायकल पर शक होने लगता है। ट्रेन के दरवाजे में प्रवेश करते हुए हम सही सलामत घर लौटने की दुआ कर रहे होते हैं और दुआ करते हुए मस्जिद में ही बम फूटने के डर से डर रहे होते हैं। भगवान और अल्लाह से डरो कहते-कहते कब हम भगवान और अल्लाह कहने वालों से डरने लगे हमें पता ही नहीं चला। वैसे एक दिन में कुछ नहीं घटा है। एक लम्बी यात्रा है इस ओर जाने की। अगर गौर से देखेंगे तो समझ आएगा कि हम उल्टे पैर चले हैं और विश्वास के स्थान पर हमने संदेह कमाया है।
व्यक्तिगत होते जा रहे हम यह कभी नहीं सोचते की स्वयं को सुरक्षित करने की चाह में हम किसी और के दिल में असुरक्षा का भाव तो नहीं डाल रहे हैं? स्वयं को ऊपर दिखाने की कोशिश में किसी और को नीचा तो नहीं दिखा रहे? जहां सुरक्षा और सम्बल विश्वास को बढ़ाते हैं वहीं असुरक्षा और हीनभावना दोनों ही संदेह को जन्म देती हैं।
विश्वास चाहे परिवार के सदस्यों में हो, स्त्री-पुरूष में हो या समाज के विभिन्न वर्गों या धर्मो में हो उसको दोनों पक्षों को ही बढ़ाना होता है। कोई भी एक पक्ष यदि अपनी भूमिका सकारात्मक तरीके से न निभाए तो विश्वास में कमी और संदेह में बढ़ोतरी होती है। चाहे महिलाओं की सुरक्षा के मामले में पुरुषों ने जो विश्वास खोया है उसकी बात करें या आतंकवाद के विषय में दो धर्मों के आपसी विश्वास में कमी की बात करें दोनों में वजह एक ही है कि किसी एक पक्ष ने आत्मकेन्द्रित होकर सोचा है।
सुरक्षा के संबंध में एक वाक्य प्रचलित है कि यदि स्वयं की सुरक्षा करना चाहते हैं तो अपने पड़ोसी की सुरक्षा करें। यह सुरक्षा के संबंध में सबसे बड़ा सच है। परंतु बिडंबना यह है कि हम आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। किसी दुर्घटना की प्रथम प्रक्रिया में संवेदना का स्थान आज इस तसल्ली ने लिया है कि ईश्वर की कृपा है अल्लाह का शुक्र है ये हमारे साथ तो कुछ नहीं हुआ। जब हम किसी भी घटना के शिकार व्यक्ति से संवेदना नहीं दिखा पाते और स्वयं के बच जाने की तसल्ली भर कर लेते हैं तो कहीं न कहीं उस घटना के शिकार व्यक्ति के मन में एक असुरक्षा का बीज रोपित कर देते हैं कि उसके साथ कोई नहीं है। आप अनजाने ही यह साबित करते हैं कि आप दोषी नहीं है परंतु आप दोषियों के विरोध में भी नहीं हैं। इस प्रकार के दोषारोपण से बचने का एममात्र उपाय यही है कि हम स्वयं से पहले दूसरे की सुरक्षा की फिक्र करें। चाहे वह एक असुरक्षित महसूस करती हुई महिला हो या आपके पड़ोस में रहने वाला वह पड़ोसी जो अपने धर्म या मजहब को लेकर असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हो रहा है, उसे विश्वास दिलाएं कि आप उसके साथ हैं वरना कल जब वो आप पर शक करेगी/करेगा तो कुछ गलत नहीं होगा।
ऐसे में एक प्रश्न और उठता है कि हम हमारे परिवार और पड़ोस में विश्वास बढ़ाने का काम तो कर सकते हैं परंतु व्यापक रूप में जब देश के स्तर पर आपसी विश्वास की बात आती है तो क्या हमारा यह फार्मुला सफल होगा? यूं तो बदलाव स्वयं से शुरू होकर व्यापक क्षेत्र में प्रभाव दिखाता है परंतु इस विषय में कहीं न कहीं व्यापक रूप में विश्वास बनाए रखने के लिए शासन व्यवस्था पर भी जिम्मेदारी आती है। शासन की यह जिम्मेदारी है कि विश्वास का एक माहौल तैयार करे न कि हमें हर वह वजह दे जिससे हम एक दूसरे पर शक करें और लगातार वही करते रहें। अभी तक अक्सर शासन व्यवस्था की भूमिका ऐसी देखी गई है। कभी-कभी लगता है कि व्यवस्था यही चाहती है कि हम विश्वास खोते जाएं और हमारे बीच संदेह बढ़ता जाए। और एक दूसरे पर संदेह करने में व्यस्त हम लोग व्यवस्था पर संदेह न करें, उसकी गलतियों पर विचार न करें। यदि शासन को उसका धर्म याद दिलाया जाए तो यह उसका ही धर्म है कि वह समाज में ऐसा वातावरण बनाए कि लोगों में असुरक्षा का माहौल न बने और वे एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से न देखें।
महिलाओं की सुरक्षा और आतंकवाद से बचाव दोनों विषयों में यह सत्य है कि हमें सतर्क रहना चाहिए और कहीं न कहीं शक करना सतर्क रहने और सुरक्षित बने रहने के लिए आवश्यक लगता है। परंतु यह विचारणीय है कि क्या ऐसा करते हुए एक सुरक्षित और सौहार्दपूर्ण समाज की दृष्टि से हम असफल होते नहीं लग रहे हैं? क्या हम ऐसा समाज बनाने में असमर्थ नहीं हो रहे जहां संदेह की आवश्यकता न हो सतर्कता और सुरक्षा के नाम पर भी नहीं। आपसी विश्वास को बढ़ाने का ऐसा प्रयास होना ही चाहिए कि हम संदेह करने की विवशता से मुक्त हो सकें।
आज सड़क चलते यदि कोई लिफ्ट मांगता है तो डर के साथ मन में प्रश्न आता कि उसे लिफ्ट दें या नहीं? सहायता से पहले शक दिमाग में जगह बना लेता है। यदि सहायता की प्रवृत्ति को महत्व देकर एक अनजान व्यक्ति को लिफ्ट दे भी दें तो पूरे रास्ते ऐसा लगता है कहीं हमने स्वयं ही खतरा मोल तो नहीं ले लिया। यदि वो बात न करे तो हमें संदेह होता है कि वह कोई योजना तो नहीं बना रहा और यदि वो हमारे विषय में कुछ ज्यादा जानना चाहे तो भी हमें शक होता है कि यह परिचय बढ़ाने का प्रयास क्यों कर रहा है? बेधड़क अपने घर, परिवार या मुहल्ले में घूमने वाले हम लोग अब अपने ही लोगों से नजर बचाके चल रहे हैं कि कहीं हमारी नजर में कुछ ऐसा न हो जो किसी को संदेहास्पद लगे। हम किसी और पर तो छोडि़ए खुद पर शक करने लगे हैं? यह संदेह का पौधा हमारे दिमागों में यूं ही नही उगा है, देश में कुछ ऐसी स्थितियां लगातार बनी हैं कि जिन्होंने हमारे दिमागों में संदेह के बीज डाले और लगातार उन बीजों को सींचा और उनके विकास में सहायक बनीं। इन स्थितियों का ताजा उदाहरण हैं दिल्ली की घटना और हैदराबाद की घटना। दोनों घटनाएं पूर्णत: भिन्न हैं परंतु दोनों ने ही हमारे एक-दूसरे पर विश्वास में कहीं दरार डाली है और दोनों ने ही एक विचार को हमारे दिमागों में रोपा है और वह है संदेह या शक का विचार। कहीं न कहीं संदेह की दृष्टि हमारी विवशता बन गई है। यौन हिंसा के नाम पर महिलाएं या महिलाओं के लिए फ्रिकमंद उनसे जुड़े लोग पुरुषों को संदेह से देख रहे हैं और आतंकवाद से भयभीत सभी नागरिक एक दूसरे को संदेह से देख रहे हैं। इस दृष्टि से यह संदेह करने का या विश्वास खोने का दौर कहा जा सकता है।
संदेह के इस युग का सामाजिक परिदृश्य यह है कि घरों के बीच की दीवारें मजबूत होती जा रही हैं और दीवारों में पाई जाने वाली वे खिड़कियां नदारद हो रही हैं जिनसे दो घर के लोगों के बीच खाने-पीने की चीजों से लेकर रिश्तों तक की अदला-बदली हुआ करती थी। देश और पड़ोस तो छोडि़ए परिवार में ही रिश्तों पर अब यकीन नहीं होता है, यौन उत्पीडऩ और महिला सुरक्षा पर बहस ने घरों के खुले कोनों को भी पर्दों में ढकेल दिया है।
प्रत्येक आंतकवादी घटना के बाद हम इतना सतर्क हो जाते हैं कि हमें हर गली चौराहे पर रखी सायकल-मोटरसायकल पर शक होने लगता है। ट्रेन के दरवाजे में प्रवेश करते हुए हम सही सलामत घर लौटने की दुआ कर रहे होते हैं और दुआ करते हुए मस्जिद में ही बम फूटने के डर से डर रहे होते हैं। भगवान और अल्लाह से डरो कहते-कहते कब हम भगवान और अल्लाह कहने वालों से डरने लगे हमें पता ही नहीं चला। वैसे एक दिन में कुछ नहीं घटा है। एक लम्बी यात्रा है इस ओर जाने की। अगर गौर से देखेंगे तो समझ आएगा कि हम उल्टे पैर चले हैं और विश्वास के स्थान पर हमने संदेह कमाया है।
व्यक्तिगत होते जा रहे हम यह कभी नहीं सोचते की स्वयं को सुरक्षित करने की चाह में हम किसी और के दिल में असुरक्षा का भाव तो नहीं डाल रहे हैं? स्वयं को ऊपर दिखाने की कोशिश में किसी और को नीचा तो नहीं दिखा रहे? जहां सुरक्षा और सम्बल विश्वास को बढ़ाते हैं वहीं असुरक्षा और हीनभावना दोनों ही संदेह को जन्म देती हैं।
विश्वास चाहे परिवार के सदस्यों में हो, स्त्री-पुरूष में हो या समाज के विभिन्न वर्गों या धर्मो में हो उसको दोनों पक्षों को ही बढ़ाना होता है। कोई भी एक पक्ष यदि अपनी भूमिका सकारात्मक तरीके से न निभाए तो विश्वास में कमी और संदेह में बढ़ोतरी होती है। चाहे महिलाओं की सुरक्षा के मामले में पुरुषों ने जो विश्वास खोया है उसकी बात करें या आतंकवाद के विषय में दो धर्मों के आपसी विश्वास में कमी की बात करें दोनों में वजह एक ही है कि किसी एक पक्ष ने आत्मकेन्द्रित होकर सोचा है।
सुरक्षा के संबंध में एक वाक्य प्रचलित है कि यदि स्वयं की सुरक्षा करना चाहते हैं तो अपने पड़ोसी की सुरक्षा करें। यह सुरक्षा के संबंध में सबसे बड़ा सच है। परंतु बिडंबना यह है कि हम आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। किसी दुर्घटना की प्रथम प्रक्रिया में संवेदना का स्थान आज इस तसल्ली ने लिया है कि ईश्वर की कृपा है अल्लाह का शुक्र है ये हमारे साथ तो कुछ नहीं हुआ। जब हम किसी भी घटना के शिकार व्यक्ति से संवेदना नहीं दिखा पाते और स्वयं के बच जाने की तसल्ली भर कर लेते हैं तो कहीं न कहीं उस घटना के शिकार व्यक्ति के मन में एक असुरक्षा का बीज रोपित कर देते हैं कि उसके साथ कोई नहीं है। आप अनजाने ही यह साबित करते हैं कि आप दोषी नहीं है परंतु आप दोषियों के विरोध में भी नहीं हैं। इस प्रकार के दोषारोपण से बचने का एममात्र उपाय यही है कि हम स्वयं से पहले दूसरे की सुरक्षा की फिक्र करें। चाहे वह एक असुरक्षित महसूस करती हुई महिला हो या आपके पड़ोस में रहने वाला वह पड़ोसी जो अपने धर्म या मजहब को लेकर असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हो रहा है, उसे विश्वास दिलाएं कि आप उसके साथ हैं वरना कल जब वो आप पर शक करेगी/करेगा तो कुछ गलत नहीं होगा।
ऐसे में एक प्रश्न और उठता है कि हम हमारे परिवार और पड़ोस में विश्वास बढ़ाने का काम तो कर सकते हैं परंतु व्यापक रूप में जब देश के स्तर पर आपसी विश्वास की बात आती है तो क्या हमारा यह फार्मुला सफल होगा? यूं तो बदलाव स्वयं से शुरू होकर व्यापक क्षेत्र में प्रभाव दिखाता है परंतु इस विषय में कहीं न कहीं व्यापक रूप में विश्वास बनाए रखने के लिए शासन व्यवस्था पर भी जिम्मेदारी आती है। शासन की यह जिम्मेदारी है कि विश्वास का एक माहौल तैयार करे न कि हमें हर वह वजह दे जिससे हम एक दूसरे पर शक करें और लगातार वही करते रहें। अभी तक अक्सर शासन व्यवस्था की भूमिका ऐसी देखी गई है। कभी-कभी लगता है कि व्यवस्था यही चाहती है कि हम विश्वास खोते जाएं और हमारे बीच संदेह बढ़ता जाए। और एक दूसरे पर संदेह करने में व्यस्त हम लोग व्यवस्था पर संदेह न करें, उसकी गलतियों पर विचार न करें। यदि शासन को उसका धर्म याद दिलाया जाए तो यह उसका ही धर्म है कि वह समाज में ऐसा वातावरण बनाए कि लोगों में असुरक्षा का माहौल न बने और वे एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से न देखें।
महिलाओं की सुरक्षा और आतंकवाद से बचाव दोनों विषयों में यह सत्य है कि हमें सतर्क रहना चाहिए और कहीं न कहीं शक करना सतर्क रहने और सुरक्षित बने रहने के लिए आवश्यक लगता है। परंतु यह विचारणीय है कि क्या ऐसा करते हुए एक सुरक्षित और सौहार्दपूर्ण समाज की दृष्टि से हम असफल होते नहीं लग रहे हैं? क्या हम ऐसा समाज बनाने में असमर्थ नहीं हो रहे जहां संदेह की आवश्यकता न हो सतर्कता और सुरक्षा के नाम पर भी नहीं। आपसी विश्वास को बढ़ाने का ऐसा प्रयास होना ही चाहिए कि हम संदेह करने की विवशता से मुक्त हो सकें।
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