Yogdan
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लिखना चाहूं गीत मगर मैं लिख नहीं पाता हूं
तूफानों में घिरी जिंदगी की मैं नाव चलाता हूं,
निज कर्मोंं को कोई न देखे औरों को धिक्कारे
इस युग में घटती नैतिकता के दोषी हैं हम सारे,
इंशा बनना चाहूं पर मैं बन नहींं पाता हूं,
लिखना चाहूं…
आज गिरी है गद्य की गरिमा कविता हुई बेढंगी
नई धुनों में नाच रही हो कर नारी अधनंगी,
पश्चिम की इस दौड़ में क्यों मैं भी शामिल हो जाता हूं,
लिखना चाहूं…
है कोई इंसान श्रेष्ठ को बेड़ा पार लगाए
रामराज की बात नहीं कुछ भ्रष्टाचार मिटाए,
मैं साधारण एक नागरिक दर दर ठोकर खाता हूं,
लिखना चाहूं…
रावण कंस भले थे अब के दानव क्या क्या खेल दिखाएं
राम कृष्ण की बात नहीं हम मानव तो बन जाएं,
कहीं और जाना है मुझको कहां चला जाता हूं,
लिखना चाहूं..
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। इनसे संस्थान का कोई लेना-देना नहीं है।
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