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।। यथा हि गया शिर: पुण्यं, पूर्व मेव पठयते तथा रेवा तटे पुण्यं शूल भेद न संशया:।।
जबलपुर शहर से 15 किमी दूर गया तीर्थ के बराबर ही नर्मदा के दक्षिण तट (चरगवां रोड) पर त्रिशूलभेद तीर्थ है। जिस प्रकार गयाजी में पितरों का तर्पण करने से पितर संतुष्ट होते हैं, वैसे ही नर्मदा में श्राद्ध करने से पितरों को संतुष्टि मिलती है। यही है नर्मदा में श्राद्ध करने के महत्व का रहस्य।यह जानकर आपको अचंभा होगा कि ब्रह्मांड का पहला श्राद्ध मां नर्मदा के तट पर ही पितरों द्वारा स्वयं किया गया था। नर्मदा श्राद्ध की जननी है।
स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार श्राद्ध क्या है? श्राद्ध क्यों करना चाहिए? इसका पता प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि, देवता और दानवों को भी नहीं था। सतयुग के आदिकल्प के प्रारंभ में जब नर्मदा पृथ्वी पर प्रकट हुईं, जब पितरों द्वारा ही श्राद्ध किया गया। कन्या के सूर्य राशि में भ्रमण के दौरान ही आश्विन कृष्ण पक्ष की पूर्णिमा से श्राद्ध अर्थात महालय प्रारंभ हो जाता है।स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार राजा हिरण्यतेजा अपने पितरों का तर्पण करने के लिए पृथ्वी के सभी तीर्थों में गए, लेकिन उनके पितर कहीं संतुष्ट नहीं हुए। तब उन्होंने पितरों से पूछा कि आपको कहां संतुष्टि मिलेगी? तब पितरों ने कहा कि हमारा तर्पण मां नर्मदा में ही करें। राजा पुरूरवा ने भी नर्मदा तट पर आकर अपने पितरों का तर्पण और यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान किए।
मां नर्मदा ही ब्रह्मांड में एकमात्र ऐसी नदी है, जो आदिकल्प सतयुग से इस धरा पर विद्यमान है और वे सभी को तारने में सक्षम हैं। इसी वजह से ऋषि वशिष्ठ के कहने पर राजा मनु ने नर्मदा तट पर आकर पितरों का तर्पण व यज्ञादि किया। स्कंदपुराण में इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि नर्मदा में भी श्राद्ध करने से पितरों को उतनी ही संतुष्टि होती है जितनी कि गयाजी में श्राद्ध करने से।
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