Menu
blogid : 12637 postid : 6

हे चाँद, मित्र मेरे !

अभिप्राय
अभिप्राय
  • 4 Posts
  • 127 Comments

हे चाँद, मित्र मेरे !


हे चाँद ! कितना कोमल है

तुम्हारा रंग-रूप

कितना सौम्य हो तुम अपने आप में

कितनी शीतल है तुम्हारी आत्मा

तुम्हारी चमक, तुम्हारी काया

तुम्हारी परछाई, तुम्हारा आस-पास

यहाँ तक कि तुम्हारा अंग-अंग |


तुम केवल कोमल ही नहीं

शक्ति का स्वरुप हो

तीव्र हो, दिव्य हो

ज्योति के अदभुत रूप

संगी हो आकाश के

धरती का वियोग हो

कभी लुप्त हो, कभी क्षुब्ध हो

कभी सितारों के श्रृंगार |


हे चाँद ! जब कभी दृष्टि मेरी

तुम्हारे आकाश पर पड़ती है

मैं सवालों के कटघरे में

आ जाती हूँ यह सोच कर

कि सह लेते हो कैसे तुम

सूरज की क्रूर रोशनी

और कैसे घटते-बढ़ते हो

उसकी छात्रछाया में |


क्या तुम्हारा विश्वास

उसकी कठोरता से

थोड़ा भी डगमगाता नहीं

क्या तुम्हारा मन क्रूर किरणों से

कभी विचलित होता नहीं

आखिर, कैसे सह लेते हो

यह सब कुछ

और पी लेते हो

अपने आँसुओं को

कैसे ढक लेते हो

अपनी असहनीय पीड़ा

और मुस्कुराते रहते हो

सारी रात, सारी उम्र !


तुम्हारी इस महानता को देख

मैं निहारती हूँ तुम्हारी छवि

तुम्हारे हर एक दिन

और हर एक कदम

और हर पूर्णिमा की रात

निहारती हूँ तुम्हें जी भर कर

आँखें टिक जाती हैं

सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम पर

और फिर से खो जाती हूँ

तुम्हारे असीम आकाश में

देखकर तुम्हारा रंग-रूप

तुम्हारी कोमलता, तुम्हारी शीतलता

तुम्हारी आत्मा, तुम्हारी सौम्यता,

तुम्हारी चमक, तुम्हारी काया,

तुम्हारी परछाई, तुम्हारा आस-पास

और तुम्हारा कभी ना दिखने वाला

वह चेहरा जिसे मैंने महसूस किया है

बहुत करीब से मित्र मेरे !


—  धवलिमा भीष्मबाला

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply